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Showing posts from August, 2014

ब्लडी फकर... मसानी

सब्ज़ा ओ गुल, सब कहाँ गए रह रह कर एक मचल जागती है. मैं अपने पहलू की परछाई को टटोलता हूँ. कोई नहीं है. वीराना है. सीली गर्मी के झौंके गुज़रते हैं छूकर. ख़यालों का सिलसिला पल भर को टूटता है और फिर उसी राह चल पड़ता है. बदन पर कहीं कोई चोट का निशाँ नहीं, कहीं कोई नीली रंगत नहीं, किसी बेंत का कोई निशाँ नहीं. है कोई और वजह कि एक गहरी टीस उठती है. उठती है तो लगता है जाने कितनी ही गहरी होगी. मगर वह टीस अपने शबाब तक आते आते दम तोड़ देती है. बड़ी उदासी आती है कि टीस भी एक बार पहुँच जाये मकाम तक. उसे देख भाल कर सहेजें, उसे समझें, उसे ही दवा पूछें. कुछ नहीं आता. मसानी आता है. ब्लडी फकर मसानी. मैं गरिमा हूँ. व्हाईट स्किन. ब्यूटीफुल. मैं हूँ मगर जाहिर नहीं हूँ. मुझ पर निगाहें हैं मगर मैं कहीं आदमकद शक्ल में दिखती नहीं हूँ. मैं हसरत हूँ. एक ऐसी हसरत जिसके बारे में किसी को कुछ नहीं मालूम. मैं अपनी आदिम शक्ल में दिखना चाहती हूँ, नहीं देख पाते मुझे. मेरे महबूब हैं. अनजाने खामोश अपने तक वाचाल, प्रतीक्षा भरे हुए. मैं किसी कार में या ऐसे ही कहीं किसी जगह अपने भीगे होठ अपनी देह की ...

कुछ एक अपवादों को छोड़कर

तुम रखो अधरों से परे मीठी नज़र के विपरीत मगर जीवन वेणु है हवा फूंकती है, चहक. धुन रहे उदासी, तो रहे. * * * वहीँ से शुरू होता है जुलाई का आखिरी सप्ताह जहाँ तुम छोड़कर जाते हो। ख़त्म कहाँ होता है, नहीं मालूम। * * * अगर मैं कहूँ कि मेरे दोस्त हैं तो ये साफ़ झूठ होगा। ये असल में कुछ ऐसा है कि या तो मैं उसे चाहता हूँ या वो मुझे चाहता है। ये भी हो सकता है कि हम दोनों एक दूजे को चाहते हों। वे लोग कौन हैं? वे लोग हर पेशे से, जगह से हर लिंग से हैं। उनमें कुछ न कुछ खूबी है। उस खूबी से एक सम्मोहन जागता है। वह मुझे उनकी ओर धकेलता है। मैं उनके सानिध्य की चाहना से भरा होता हूँ। कला प्रदर्शनी में लगे चित्रों को किसी दोस्त की तरह देखने नहीं जाता, एक चाहने वाले की तरह जाता हूँ। नाट्य प्रदर्शनों में अभिनय कला के रस की बूँदें चखने जाता हूँ। किताबों वालों के पास जादुई शब्दों के सुरूर को होता हूँ। वे मेरे दोस्त नहीं हैं। मैं उनका चाहने वाला हूँ। एक लड़के के साथ बरसों घूमता रहा। उसमें एक ख़ामोशी थी। वही रसायन मेरी चाहना था। क्या वो मेरा दोस्त था? मुझे ऐसा अब तक नहीं लगता। हम दोनों बेहिसाब सिगर...