सब्ज़ा ओ गुल, सब कहाँ गए रह रह कर एक मचल जागती है. मैं अपने पहलू की परछाई को टटोलता हूँ. कोई नहीं है. वीराना है. सीली गर्मी के झौंके गुज़रते हैं छूकर. ख़यालों का सिलसिला पल भर को टूटता है और फिर उसी राह चल पड़ता है. बदन पर कहीं कोई चोट का निशाँ नहीं, कहीं कोई नीली रंगत नहीं, किसी बेंत का कोई निशाँ नहीं. है कोई और वजह कि एक गहरी टीस उठती है. उठती है तो लगता है जाने कितनी ही गहरी होगी. मगर वह टीस अपने शबाब तक आते आते दम तोड़ देती है. बड़ी उदासी आती है कि टीस भी एक बार पहुँच जाये मकाम तक. उसे देख भाल कर सहेजें, उसे समझें, उसे ही दवा पूछें. कुछ नहीं आता. मसानी आता है. ब्लडी फकर मसानी. मैं गरिमा हूँ. व्हाईट स्किन. ब्यूटीफुल. मैं हूँ मगर जाहिर नहीं हूँ. मुझ पर निगाहें हैं मगर मैं कहीं आदमकद शक्ल में दिखती नहीं हूँ. मैं हसरत हूँ. एक ऐसी हसरत जिसके बारे में किसी को कुछ नहीं मालूम. मैं अपनी आदिम शक्ल में दिखना चाहती हूँ, नहीं देख पाते मुझे. मेरे महबूब हैं. अनजाने खामोश अपने तक वाचाल, प्रतीक्षा भरे हुए. मैं किसी कार में या ऐसे ही कहीं किसी जगह अपने भीगे होठ अपनी देह की ...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]