सब्ज़ा ओ गुल, सब कहाँ गए
रह
रह कर एक मचल जागती है. मैं अपने पहलू की परछाई को टटोलता हूँ. कोई नहीं
है. वीराना है. सीली गर्मी के झौंके गुज़रते हैं छूकर. ख़यालों का सिलसिला पल
भर को टूटता है और फिर उसी राह चल पड़ता है. बदन पर कहीं कोई चोट का निशाँ
नहीं, कहीं कोई नीली रंगत नहीं, किसी बेंत का कोई निशाँ नहीं. है कोई और
वजह कि एक गहरी टीस उठती है. उठती है तो लगता है जाने कितनी ही गहरी होगी.
मगर वह टीस अपने शबाब तक आते आते दम तोड़ देती है. बड़ी उदासी आती है कि टीस
भी एक बार पहुँच जाये मकाम तक. उसे देख भाल कर सहेजें, उसे समझें, उसे ही
दवा पूछें.
कुछ नहीं आता.
मसानी आता है. ब्लडी फकर मसानी.
मैं
गरिमा हूँ. व्हाईट स्किन. ब्यूटीफुल. मैं हूँ मगर जाहिर नहीं हूँ. मुझ पर
निगाहें हैं मगर मैं कहीं आदमकद शक्ल में दिखती नहीं हूँ. मैं हसरत हूँ. एक
ऐसी हसरत जिसके बारे में किसी को कुछ नहीं मालूम. मैं अपनी आदिम शक्ल में
दिखना चाहती हूँ, नहीं देख पाते मुझे. मेरे महबूब हैं. अनजाने खामोश अपने
तक वाचाल, प्रतीक्षा भरे हुए. मैं किसी कार में या ऐसे ही कहीं किसी जगह
अपने भीगे होठ अपनी देह की सब सरगोशियाँ कैसे लुटाती हूँ इसके बारे में
ब्लडी अंकुर टाइप लोग खूब सोचते हैं. वे मेरे आशि़क हैं. उनको सब चलता है.
मैं
एक ओछापन हूँ, भ्रष्टता, चालाकी, रिक्तता और गुंज़लक हूँ. मेरा ठीक ठीक
ब्यौरा नहीं है. इसलिए मैं गरिमा नहीं हूँ. तो क्या मैं मसानी हूँ. जयपुर
के जेकेके के कैफे में तस्नीम मेम की अंगुलियों से खेलता हुआ. उसके कानों
में हवस पिरोता हुआ. उसे अनसुने रेशमी वादों के जाल में बांधता हुआ. हर
छुअन के साथ तस्नीम के पैराहन का कोई हिस्सा अपने खयाल में ही नोच लेता
हुआ. हाँ ये बेहतर है. मुझे सुकून आता है. मैं हूँ. ऐसा ही हूँ. मसानी मगर
मुझसे अलहदा है. वह उस लम्हे को जीना जानता ही नहीं. जिस लम्हे में किसी को
छूते ही उसकी देह गंध का रसायन बदल जाता हो. जैसे किसी पात्र से उठते हुए
धुएं का रंग बदल जाये. उन बदलते हुए रंगों के अंतराल को पढते हुए. उसी
बदलती हुई देह गंध को अपनी आत्मा तक खींचते हुए, जीए जाने वाला मसानी नहीं
है. इसलिए मैं तय पाता हूँ कि मैं मसानी नहीं हूँ.
आशीष,
किताब के ये दो पात्र ही मुझे अपने करीब लगे. बाकी सबकुछ जो है
उसको लेकर चिंतित हूँ. चिंता इस तरह की है कि काम वासना, देहिक क्रियाओं के
अभ्रद चित्रण, सहवास के पलों की गरम बयानी, षड्यंत्रों के सिलसिले, कमीनगी के
स्तर की जासूसी, और इहलोक में अलौकिक घटनाओं के घटित होते जाने और उनकी
वजहें और सफाई इस किताब से अनुपस्थित है. ये सब नहीं है तो कैसे मैंने तीन
सौ पन्ने पढ़े? यही चिंता है. पढ़ने के मामले में मेरा हाल बहोत खराब है. मैं
अपनी रूमानी दुनिया के खयालों से कभी बाहर नहीं आना चाहता हूँ. किताबें
मुझे मेरी दुनिया से अलग करती हैं. इसलिए मैं किताबों को अपने पहलू में
रखता हूँ मगर उनके अंदर दाखिल नहीं होता.
मैंने
कभी नोवेल पढ़े ही नहीं. मैंने बस कुछ कहानियां पढ़ी हैं. कुछ हज़ार कहानियां
भर. वे सब कहानियां ऐसे शिल्पियों की हैं जिन्होंने कहानी के शिल्प में
कविता की. जिन्होंने गहरे अवसाद, सघन दुःख, अकूत पीड़ा, असीम प्रतीक्षा,
भयावह छल, बेबसी की पराकाष्ठा को लिखा. मुझे यही पढ़ने में सुख था. मैं जब
बच्चा था तब भी ऐसी ही कहानियां पढता था. वे कहानियां ऐसे ही तत्वों से बनी
होती थी. मैंने कभी परीकथाएं, रेखाचित्रों वाली जासूसी सीरीज, ऐयारी के
किस्से, काम वासना के हलके बिम्बों से भरा पीत साहित्य नहीं पढ़ा. मुझे पढ़ना
चाहिए था. लेकिन मैं पापा से डरता रहा. इसलिए मेरे पास ऐसी कोई प्रतिबंधित
किताब आई ही नहीं. मैंने किसी निषेध का उल्लंघन किया ही नहीं. इसी तरह
मैंने उपन्यास नहीं पढ़े.
कुल्फी
एंड केपेच्युनो पढते हुए मुझे इसी बात ने बार-बार थपकी दी कि क्या वहज है
जो मैं इस नोवेल को लगातार पढ़े जा रहा हूँ. मुझे कौनसा बल इसकी ओर धकेल रहा
है. मैं किस आकर्षण से खिंचा चला जा रहा हूँ. इन तीन लड़को और दो लड़कियों
की कथा में क्या गिरह है जो दिखती नहीं मगर लुभाती रहती है. अनुराग के
पापा, बिलकुल अपने पापा नहीं लगते. नेहा की बुआ कहीं से अपनी नहीं लगती,
प्रतीक के पापा जैसा कुछ सोच नहीं पाता हूँ. फिर भी सब कुछ शब्द-शब्द पढता
जाता हूँ. इकलौती घटना जिसे पूरे रोमांच और बढ़ी हुई धड़कनों से पढ़ा जाना था
वह बड़ी सादा निकली. एल्फा, बीटा, गामा, मसानी और तस्नीम कुछ नहीं रच पाते.
रोमांच का एक पल भी नहीं. मैं मगर उसे उतनी ही तन्मयता से पढता गया. क्यों?
कैसे? किसलिए?
मैंने
एक बार छोटी सी कहानी पढ़ी थी. मोपासा की कहानी. शीर्षक था प्रेम. उप
शीर्षक था एक शिकारी की डायरी के तीन पन्ने. मैं जब नोवेल के अधबीच था या
शायद दो तिहाई पर उसी समय उस कहानी की याद आई. इसलिए कि उस कहानी में कुछ
ऐसे बिम्ब थे जो चार पांच शब्दों में कहे गए. ऐसे अनेक बिम्ब थे. वे बार
बार रोक लेते. मैं कहानी को पढते हुए रुक कर समझता. उनके सौंदर्य को
निहारता. उस पर मुग्ध होता और जान दे देता. कुल्फी में ऐसे अनेक बिम्ब आये.
लड़कों की बोलचाल की भाषा के बिम्ब. मैं मुस्कुराया. मैंने दुआ दी. मैंने
सोचा कि हाँ यही वो बात है जो इस कथा में खनक की तरह है. ये ओरिजनल है. ये
किशोरलोक की भाषा है इसका कॉपी राइट किसी के पास नहीं है मगर इतनी ही
सुंदरता से कोई लिखे तो उसे लिखते जाना चाहिए. मोपासा ने लिखा “ऐसी ठण्ड थी
कि पत्थर चटक जाये” मुझे नहीं मालूम कि इसे पढते हुए कोई कैसे रिएक्ट करे
मगर मैंने ऐसे किया कि आह मैं खुद चटक गया हूँ. भाषा के शब्दों ने ठण्ड का
ऐसा खाका कुछ शब्दों में खींचा कि सब मुकम्मल हो गया. ठण्ड को अपनी सबसे
ऊंची हैसियत मिली. ऐसे ही कुछ कुछ चीज़ें इस किताब में आती रहीं. शायद
इन्हीं चीज़ों में मुझे रोक कर रखा. मैं पढता गया.
कैथरीन
मैन्सफील्ड के मिस्टर एंड मिसेज फाख्ता के आखिर में दम परेशान और चिंता की सलवटों से भरा चेहरा लिए फाख्ता खड़े होते हैं. उन्हें देखकर वे हंस पड़ती
है. कहती है लौट आओ मिस्टर फाख्ता. ये हंसी एक कथा के बीच उपस्थित एक और
पूर्ण कथा है. मुझे लगता है कि इस तरह की एक स्थिति कथा को जानदार बना सकती
है. ठीक वैसे ही प्रतीक लौट आया. और वह देख रही है. वह और प्रतीक असमजंस
के जिस वृत्त में खड़े होते हैं उसकी वृताकार रेखा दो बार के तवील बोसों से
खींची है. वोदका और आमेर की तन्हाई उनको अस्पृश्य नहीं कर पायी. वे दोनों
अब भी छुए जाने लायक हैं. उनके पास जो कुछ बचा है वह उतना ही है जितना
मिलने से पहले था. उन दोनों में कोई इजाफ़ा नहीं हुआ. क्या नाम है उस लड़की
का? कोमल न? मेरी याद ज्यादा अच्छी नहीं है. इसलिए भी कि मैं कोमल जैसा
नहीं हूँ शायद उसे याद न रख पाया. मैं गरिमा जैसा हूँ. मुझे वैसा होने में
खुशी है.
किताब
का स्टोक करेक्टर इरशाद अगर अपनी तमाम खामियों के साथ मुखरित हुआ होता तो
एक गहरी बदनीयती, गहरे संबल की ओर ले जाती. हम सब के साथ हादसे गुज़रते हैं.
हम उनको हल्केपन से बुझाना चाहते हैं. इसकी जगह हमें उनको उद्घाटित करना
चाहिए. इरशाद ने किस तरह वह खेल रचा उसे खोलना चाहिए. जितना खोला वह
शालीनता है. मगर इकतरफा शालीनता. उस घटना को डिप्रेशन जितना बुनना चाहिए
था. बंद कथाएं मुझे लुभाती तो हैं मगर सबको नहीं लुभाती. भूपी उनको किसी
कहानी के आखिर में थप्पड़ मार सकता है. मैं ऐसा नहीं कर पाता हूँ. इस सोशल
मिडिया पर बहुत सारे इरशाद हैं. वे मेरी लेने में कोई कसर नहीं छोड़ते. मेरे
साथ बलात्कार करते हैं. वे मेरी कहानियाँ बनाते हैं. ऐसी कहानियों पर दाद देने
वाले भी यही बलात्कार करते हैं. लेकिन मैं उनको थप्पड़ मारने की जगह दुःख
भरे हृदय से उनसे दूर चला जाता हूँ. मैं उनको जवाब देने की जगह दूरी बुनता
हूँ. मैं कष्ट उठाता हूँ. कि उनका कुछ नहीं किया जा सकता...
वैसे
अनुराग मेहता तुम बड़े अनलकी हो. सेन्ट्रल पार्क से लेकर घर के बंद कमरों
में भी शालीन बने रहते हो. तुम्हारा प्यार सच्चा है या कच्चा है? जैसा भी
है भला है कि मैं अपनी तड़प के दिनों में सुबह आठ बजे से दो बजे तक इस किताब
के बचे हुए एक सौ अस्सी पन्ने एक ही बैठक में बिना हिले पढ़ जाता हूँ.
राजेंद्र राव सर ने उस रात सही कहा था. आशीष के पास कमाल की भाषा है. उनकी
कही यही बात मुझे ज़रा सा हिंट देती है कि तीन सौ पन्नों की किताब मैं कैसे
पढ़ पाया. पढकर खुश कैसे रहा. सुनो आशीष ये सलाह बेमानी है कि मोपासा,
बाल्ज़ाक की तरह सौंदर्य से भरे दुःख लिखे जाएँ. अकूतागावा की तरह घृणा से
उपजे असीम अधैर्य को बुना जाये. प्रेमचंद की तरह समाज को जस का तस अमर उकेर
दिया जाये. बस ये याद रखो कि पोप्युलर फिक्शन वो जादूगर है जो टोपी से
कबूतर निकाल कर उड़ाता रहता है, जिसके लोटे का पानी कभी खत्म नहीं होता. जो
देखने वालों को सम्मोहन और हाथ की सफाई में बाँध लेता है. ऐसी ईमानदार
लिखाई को, इस मीठी सरस भाषा को, इस पवित्र फिक्शन को पोप्युलर कैसे कहते
हैं, इस पर फिर से सोचो.
मेरी ज़िंदगी के बारह घंटे खा लेने के लिए माफ किया.
और
कहानियां लिखकर लाना, इस बार मुझे पढ़ने में कोई संकोच नहीं होगा. मैं भी
ये सीखना चाहता हूँ कि इतनी लंबी और बोर न करने वाली कहानियां कैसे लिखी
जाती हैं. वैसे कई बार लगता है कि मसानी हो जाने में क्या बुरा है मगर होना
तो गरिमा ही पसंद है मुझे. काश मैं हो सकूँ... कोई ईश्वर होता है, कोई
सहस्र जन्म होते हैं, कोई वरदान होता है तो मुझे अगले जन्म एक लड़की बनाना.