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Showing posts from August, 2015

सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना- 2

मेरे पास दो रास्ते नहीं है. मेरे पास दो मन नहीं है. मेरे पास दो कुछ नहीं है. मैं रूई का फाहा हूँ. जब तक डाल से बंधा हूँ, डाल का हूँ. जब हवा से मिलूँगा तो उसका हो जाऊँगा. मैं पहले कहाँ था, मैं अब कहाँ हूँ और मैं कल कहाँ होऊंगा, इसकी स्मृति और भविष्य कुछ नहीं है. मैं जब शाख पर खिल रहा था, प्रेम में था. मैं जब हवा से मिला प्रेम में रहा. मैं जब धूल में मिलूँगा तब प्रेम में होऊंगा. मेरा उदय और मेरा अस्त होना एक ही क्रिया की भिन्न अवस्थाएं हैं.  मैं सुनता हूँ तुम्हारी आवाज़ में एक कोमल धुन. जो इस तरह कोमल है कि फरेब भरी जान पड़ती है. पत्थरों पर पानी तभी तक पड़ा रहता है जब तक धूप का संसर्ग न हो. तुम्हारी भाषा भी कुछ विषयों पर बदल जाती है. मगर मैं जो था वह हूँ, शायद वही रहूँ. कुछ रोज़ से फिर अपनी पढ़ाई के दिन याद आ रहे थे. कुछ रोज़ से एक छूटी हुई पोस्ट याद आ रही थी. आज सुनो आगे की बात....  ______________________ कितने-कितनों को संदेशे भेजे कितनों के मन की शाखों पर अपने सुख का झूला, झूला. कितनों की बुद्धि पर झूठे नेह की कलमें रोपी. सुनो जाना, आवाज़ों का रेला आता कर्म-मल ग...

कहाँ है तुम्हारी प्रेमिका

लिखना सबसे चिपकू व्यसन है. एक अक्षर मांडो तो पीछे एक कतार चली आती है. एक बार शुरू होने के बाद दिन-रात उसी में रम आते हैं. इसलिए अक्सर शब्दों को छिटक कर रेगिस्तान पर तने आसमान को चुप निहारने लगता हूँ. छत से रेलवे ओवर ब्रिज दीखता है उस पर गुजरते हुए दुपहिया-चौपहिया वाहन मेरी गुमशुदगी पर दस्तक की छेड़ करते हैं. मैं पल भर को आकाश के विस्तृत वितान के सम्मोहन से बाहर आता हूँ और फिर उसी में लौट जाता हूँ. लिखना बस इतना था कि मुझे नीला रंग प्रिय है. *** आँख भर नीला रंग।  तुम्हारे कन्धों पर ठहरा हुआ। *** वो जो हम समझे थे  असल में बात उतनी ही नहीं थी। *** छत, खिड़कियां, दीवार,  अलगनी और नीम अँधेरा  जैसे सब आ बैठें हों किसी ख़ामोशी की क्लास में। *** अल्पविरामों से भरी एक ठहरी हुई ज़िन्दगी।  मगर गुज़रती हुई। *** याद भीगी छत से टपकता है एक ख़याल।  ज़िन्दगी एक करवट चुप देखती है। शायद देखती है। *** जितने रंग थे, उन रंगों से अनेक रंग खिलते गए. जितनी आवाजें थी, उन आवाज़ों में अनेक आवाजें झरती रहीं. जितने मौसम थे, उन मौसमों में अनेक मौ...