सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना- 2

मेरे पास दो रास्ते नहीं है. मेरे पास दो मन नहीं है. मेरे पास दो कुछ नहीं है. मैं रूई का फाहा हूँ. जब तक डाल से बंधा हूँ, डाल का हूँ. जब हवा से मिलूँगा तो उसका हो जाऊँगा. मैं पहले कहाँ था, मैं अब कहाँ हूँ और मैं कल कहाँ होऊंगा, इसकी स्मृति और भविष्य कुछ नहीं है. मैं जब शाख पर खिल रहा था, प्रेम में था. मैं जब हवा से मिला प्रेम में रहा. मैं जब धूल में मिलूँगा तब प्रेम में होऊंगा. मेरा उदय और मेरा अस्त होना एक ही क्रिया की भिन्न अवस्थाएं हैं. 

मैं सुनता हूँ तुम्हारी आवाज़ में एक कोमल धुन. जो इस तरह कोमल है कि फरेब भरी जान पड़ती है. पत्थरों पर पानी तभी तक पड़ा रहता है जब तक धूप का संसर्ग न हो. तुम्हारी भाषा भी कुछ विषयों पर बदल जाती है. मगर मैं जो था वह हूँ, शायद वही रहूँ. कुछ रोज़ से फिर अपनी पढ़ाई के दिन याद आ रहे थे. कुछ रोज़ से एक छूटी हुई पोस्ट याद आ रही थी. आज सुनो आगे की बात.... 
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कितने-कितनों को संदेशे भेजे
कितनों के मन की शाखों पर अपने सुख का झूला, झूला.
कितनों की बुद्धि पर झूठे नेह की कलमें रोपी.

सुनो जाना,

आवाज़ों का रेला आता
कर्म-मल गहराता जाता.

संवर के बारे में ज़रूर भगवान् महावीर ने कुछ कहा होगा. 

मानस व्यापार, नैतिक आचरण 
और कर्म क्रियाओं के बारे में कुछ सुना होगा

तुम एक पदार्थ हो, जो दूजे पदार्थ के उपभोग में लगे हो.

॥सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना/24॥
* * *

तुम्हारी श्रद्धा, मित्र के आवरण में
एक जोंक की तरह है.

तुम्हारे धवल दंत
विषधर की तरह अटके हुए हैं अनेक हृदयों में
तुम्हारी जिह्वा इस दंश के सिवा, सहला रही बाकी काल्पनिक दुखों को.

सम्यक चरित्र किसे कहते हैं. वे पञ्च व्रत क्या थे?

॥सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना/25॥
* * *

उपहास के रणदे से
संबंधों की छाल को छिलते देख देखकर
कैसी अव्यक्त मुस्कान आती है न तुम्हारे चहरे पर.

निर्जरा, निर्जरा, निर्जरा.

वे जैन साधू कैसे थे
जिन्होंने दर्शन, ज्ञान और चरित्र की रगड़ से कर्म-मल को साफ़ किया.

तुम्हारी देह एक बोरा है
ज़रा एक बार भीतर झाँकों. 

॥सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना/26॥
* * *
मुमुक्षु के वरघोड़े के छद्म भेष में
मित्र बनकर तुमने जहाँ कहीं पदार्पण किया.

वहां-वहां खिले हुए उपेक्षा के पुष्प.

क्या लोकाकाश के ऊपर कोई सिद्द्शिला नहीं
भला हुआ कि तुम्हें अब तक कोई तुमसा मिला नहीं.

॥सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना/27॥
* * *

तुम्हारी बौनी खिलखिलाहट नाशवान है प्रिय.

वस्तुवाद, वस्तुवाद, वस्तुवाद
अंततः हर एक की सीमा है.

॥सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना/28॥
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