इंतज़ार की कोई मियाद नहीं होती.
तपते हुए दिन और रेगिस्तान पर कुछ एक हरे टप्पे से दीखते खेत पीले पड़ते जा रहे थे. कोई राह में मिलता तो कहता इस बार जमाना ख़राब. फसलें कहीं कहीं दिख रही हैं बाकि सब जगह सुनसान. वो सप्ताह भर जो पानी बरसा था जाने किस काम लगा. भीगे दिन भीगी रातें और धूप का इंतज़ार. कुछ एक दिन बाद बरसातें इस तरह गुम हुई कि गोया रेगिस्तान सदियों से सूखा ही था. कल शाम अचानक से हवा चली और ज़रा देर बाद शहर को भिगो गयी. एक बारिश सब कुछ बदल देती है. रात अँधेरी, छपरे पर गिरती पानी की बूंदों की आवाज़. कुछ एक मुरझाई हुई ककड़ी कि फांकें. उनका फीका स्वाद. और एक पुरानी व्हिस्की से भरा प्याला. कितना तो इंतज़ार था और कैसे अचानक खत्म हो गया. उसकी इतनी ही उम्र थी. रात भर बिजली गुल. हवा बंद. आसमान से छींटे. पलंग पर से भारी गद्दों को उठाकर बाहर बालकनी में डालकर लेटे हुए, भूले भटके आते हवा के झोंकों को शुक्रिया कहते हुए रात बीत गयी.
असल नींद उस वक़्त आई जो शैतानों के सोने का समय होता है.
स्मार्ट फोन में बेटरी के सिवा हर बात में स्मार्टनेस है. वह तुरंत दुनियावी षड्यंत्रों, जालसाजियों, धोखों, उदासियों को घेरकर लाता है और पेश कर देता है. सूचनाएं अनिर्वचनीय हैं. वे अपने असर को लीप कर जाती हैं. वे अतीत की कुदाल है तो भविष्य की आधुनिक मशीनें हैं. पल भर में आपके सुख को खोदकर रख देती हैं. कितने जतन से दिन को किसी खाली जगह में सरकाया था, कितने श्रम से शाम कमाई थी, सब बेकार. शिकवे, शिकवे और शिकवे. पेड़ अँधेरे में हिलता है. हेजिंग के नीचे कोई सरसराहट जागती है. सीढियों के पास कोई साया लहराता है.
सुबह जब आँख खुलती है तो बिजली फिर गुल. सेलफोन अपनी निद्रा में. ०.
ऑफिस चले जाओ. वहां बिजली मिलेगी. अचानक दुष्यंत कहता है पापा कोई आपसे मिलने आये. जोधपुर विश्व विद्यालय में पढने के दिनों के साथी. त्रिलोक सर. गले मिलते हैं. मैं अपनी पीठ को ज़रा सावचेत करता हूँ. और फिर हम दोपहर भर उन दिनों की, उन दिनों के लोगों की, उन दिनों के चिंतारहित जीवन की बातें करते हैं. सर बास्केटबाल की टीम लेकर आये हैं. राज्यभर से सत्रह और उन्नीस साल समूह की बालिकाएं खेलने आई हैं. मैं बंद पड़े फोन को देखता हूँ. त्रिलोक सर अपने चालू फोन को देखते हैं. साढ़े तीन बजे उनकी टीम का मैच है. चाहना के कितने रंग होते हैं. मैं अपने फोन को चालू देखना चाहता हूँ. त्रिलोक सर फोन को अवॉयड करते जाते हैं.
दोपहर बाद एक दौड़ से दफ़्तर जाता हूँ. फोन चल पड़े मगर वहां होना क्या होता है. चुप दफ़्तर का काम करने लगता हूँ. अवकाश के दिनों में दफ़्तर का सूनापन रूमानी होता है. कोई दुआ सलाम नहीं. खिडकियों के रास्ते आता परिंदों का शोर. सड़क से गुज़रते वाहनों की आवाजें. मैं उठकर लम्बे गलियारे को पार करके बाहर आ जाता हूँ. खाली खाली मन कहता है चलो शाम छत पर गुज़ारो. एक ज़रा सुकून और एक छोटी बेख़याली में दुशु की आवाज़ आती है. पापा कोई मिलने आये. मैं देखता हूँ महेश कुमार गुप्ता खड़े हैं. कहते हैं, मैं कई दिनों से सोचता रहा कि आपसे मिल आऊँ. किसी हड़बड़ी में कहीं कुछ मिस होता रहा, आज पक्का था कि आपसे ज़रूर मिलना है.
मैं शाम की तीसरी चाय बनाता हूँ. चाय बनाते हुए सोचता हूँ कि इस दिन का कोई ढब है?