मन उष्णता से सिंचित एक सुबह को देखता है. ऐसी सुबह जो लौट-लौट कर आती है. नुकीले प्रश्नों की खरोंचों में आई तिलमिलाहट की स्मृति रक्ताभ रेशों की तरह आड़ी तिरछी मुस्कुराती रहती है. तलवों पर पुनः शीत बरस रहा है. धूप कच्ची है, उजास मद्धम है. रात्री का अवसान हो चुका है. प्रश्नों के मुख पर चुप्पी है. उत्तरों के मुख पर प्रश्नों की कड़वाहट की स्याह छवि है. एक घिरता हुआ हल्का स्याह अकेलापन है. एक प्रज्ज्वलित होती स्मृति है. एक शांत, निरपेक्ष और निर्दोष मन हूक से भर उठता है. रिश्तों से प्रश्न न करो. उनको भीतर से खोलकर मत देखो. उनको टटोलो नहीं. उनकी प्रवृतियों को स्मृतिदोष के खाने में रखो. चुप निहारो, सराहो, प्रसन्न रहो. मन एक किताब उठाता है. सोचता है स्वयं को कोई रेफरेंस याद दिलाये. मन किताब का एक सौ बारहवां पन्ना खोलते हुए स्वयं को रोकता है. इस तरह के उद्धरण क्या भला करेंगे. अपनी प्रकृति और प्रवृति चिकनी मिटटी होती है. उस पर स्थिर होने का विचार तो जाग सकता है किन्तु अंततः वह स्वभाव के अनुसार ही व्यवहार करती है और फिसलन पर सब कुछ गिर पड़ता है. मन चुप्पी का सिरा थामता ...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]