Skip to main content

दूसरी दुनिया का कोई फाहा, जाग के कंधे पर

बंद आँखों में
कभी-कभी
चहचहाती हैं नीली- धूसर चिड़ियाँ.
खुली आँखों में जैसे कभी बेवक्त चले आते हैं आंसू.

सुबहें तलवों के नीचे तक घुसकर गुदगुदी करती हैं. उजास का कारवां अपने चमकीले शामियाने के साथ तनकर खड़ा होता है. मैं जागता हूँ. घर में आवाजें आती हैं. रसोई से. पास के कमरों से. इन आवाज़ों में मेरी करवटें खो जाती हैं. बिस्तर के सामने की खिड़की पर पड़े हुए परदे से छनकर कुछ लकीरें उतरती हैं.

सफ़र में जो बरस जो गिर गए, उनकी बुझी हुई याद कमरे में भरी लगती है. क्यों होता है ऐसा कि जागते ही लगता है कहीं भटक गए थे, खो गए किसी रास्ते में या कुछ छूट गया है अधूरा सा. ये छूटा हुआ एक बेचैनी बुनता है. इसे पूरा कर भी नहीं सकते और इससे बच भी नहीं सकते.

कहीं ऐसा तो नहीं कि एक ही दुनिया में बसी हुई हैं अनेक दुनिया. हम इन दुनियाओं में आते-जाते रहते हैं. कई बार मन पीछे छूट जाता है. कई बार दूसरी दुनिया में जो काम कर रहे थे, उनकी स्मृति, उनका अधूरापन, उनसे बिछड़ने की तकलीफ़ साथ चली आती है. फिर किसी नींद में हम उसी दुनिया में दाख़िल हो जाते हैं.

ये सिलसिला खत्म नहीं होता.

दिल की दीवारें
पहनती रहती हैं दरारें.

अँधेरा और उदासी
चुप झांकते हैं इन दरारों से
और लिपट कर सो जाते हैं.

मगर ज़रूरी बात इतनी सी है कि
तुम आना मोहोब्बत की तरह
और विदा होना दुःख की मानिंद.

उलटे चलते हुए. पीछे की कोई बात दिखाई देती है. कोई एक पुराना रंग उतरा हुआ संकेत का पत्थर दिखाई देता है. ये उस वक़्त की बात है. वह वक़्त बीत चुका है मगर उसकी तकलीफ़ अब तक क्यों नहीं बीती? क्या कुछ चीज़ों की उम्र बीत जाने के बाद भी बची रहती है. जो मोहोब्बत की तरह आया था, उसका जाना नहीं होना चाहिए. वह जीवन ही है जो मोहोब्बत की तरह आता है. उसी की विदा का मुसलसल गीत कितने पतझड़ों तक समूहगान की तरह घेरे रहेगा. वसंत में कहाँ छुप जायेगा?

पिछले बरस की आखिरी शाम की दुआ थी- नए साल में पुराने दुखों को साथ लिए चलो, नए दुःख जाने कैसे निकलें? 

ज़िन्दगी ने फिर आवाज़ दी- "केसी, मेरे पीछे आओ." सन-सन की आवाज़ के साथ रेत झरने लगी. आवाज़ ने फिर सावधान किया- “पीछे देखना मना है.” सम्मोहनों की राख़ गिर रही है. रास्ता जो पीछे छूट गया है, वह हलके स्याह रंग से भर गया है. मैं पीछे मुड़कर देखे बिना ये सब देखता हूँ. ज़िन्दगी आगे बढती जाती है. जिसे नहीं देखना है वह सब दिखाई देता है.

कोई दवा है?



Popular posts from this blog

स्वर्ग से निष्कासित

शैतान प्रतिनायक है, एंटी हीरो।  सनातनी कथाओं से लेकर पश्चिमी की धार्मिक कथाओं और कालांतर में श्रेष्ठ साहित्य कही जाने वाली रचनाओं में अमर है। उसकी अमरता सामाजिक निषेधों की असफलता के कारण है।  व्यक्ति के जीवन को उसकी इच्छाओं का दमन करके एक सांचे में फिट करने का काम अप्राकृतिक है। मन और उसकी चाहना प्राकृतिक है। इस पर पहरा बिठाने के सामाजिक आदेश कृत्रिम हैं। जो कुछ भी प्रकृति के विरुद्ध है, उसका नष्ट होना अवश्यंभावी है।  यही शैतान का प्राणतत्व है।  जॉन मिल्टन के पैराडाइज़ लॉस्ट और ज्योफ्री चौसर की द कैंटरबरी टेल्स से लेकर उन सभी कथाओं में शैतान है, जो स्वर्ग और नरक की अवधारणा को कहते हैं।  शैतान अच्छा नहीं था इसलिए उसे स्वर्ग से पृथ्वी की ओर धकेल दिया गया। इस से इतना तय हुआ कि पृथ्वी स्वर्ग से निम्न स्थान था। वह पृथ्वी जिसके लोगों ने स्वर्ग की कल्पना की थी। स्वर्ग जिसने तय किया कि पृथ्वी शैतानों के रहने के लिए है। अन्यथा शैतान को किसी और ग्रह की ओर धकेल दिया जाता। या फिर स्वर्ग के अधिकारी पृथ्वी वासियों को दंडित करना चाहते थे कि आखिर उन्होंने स्वर्ग की कल्पना ही क्य...

टूटी हुई बिखरी हुई

हाउ फार इज फार और ब्रोकन एंड स्पिल्ड आउट दोनों प्राचीन कहन हैं। पहली दार्शनिकों और तर्क करने वालों को जितनी प्रिय है, उतनी ही कवियों और कथाकारों को भाती रही है। दूसरी कहन नष्ट हो चुकने के बाद बचे रहे भाव या अनुभूति को कहती है।  टूटी हुई बिखरी हुई शमशेर बहादुर सिंह जी की प्रसिद्ध कविता है। शमशेर बहादुर सिंह उर्दू और फारसी के विद्यार्थी थे आगे चलकर उन्होंने हिंदी पढ़ी थी। प्रगतिशील कविता के स्तंभ माने जाते हैं। उनकी छंदमुक्त कविता में मारक बिंब उपस्थित रहते हैं। प्रेम की कविता द्वारा अभिव्यक्ति में उनका सानी कोई नहीं है। कि वे अपनी विशिष्ट, सूक्ष्म रचनाधर्मिता से कम शब्दों में समूची बात समेट देते हैं।  इसी शीर्षक से इरफ़ान जी का ब्लॉग भी है। पता नहीं शमशेर उनको प्रिय रहे हैं या उन्होंने किसी और कारण से अपने ब्लॉग का शीर्षक ये चुना है।  पहले मानव कौल की किताब आई बहुत दूर कितना दूर होता है। अब उनकी नई किताब आ गई है, टूटी हुई बिखरी हुई। ये एक उपन्यास है। वैसे मानव कौल के एक उपन्यास का शीर्षक तितली है। जयशंकर प्रसाद जी के दूसरे उपन्यास का शीर्षक भी तितली था। ब्रोकन ...

लड़की, जिसकी मैंने हत्या की

उसका नाम चेन्नमा था. उसके माता पिता ने उसे बसवी बना कर छोड़ दिया था. बसवी माने भगवान के नाम पर पुरुषों की सेवा के लिए जीवन का समर्पण. चेनम्मा के माता पिता जमींदार ब्राह्मण थे. सात-आठ साल पहले वह बीमार हो गयी तो उन्होंने अपने कुल देवता से आग्रह किया था कि वे इस अबोध बालिका को भला चंगा कर दें तो वे उसे बसवी बना देंगे. ऐसा ही हुआ. फिर उस कुलीन ब्राह्मण के घर जब कोई मेहमान आता तो उसकी सेवा करना बसवी का सौभाग्य होता. इससे ईश्वर प्रसन्न हो जाते थे. नागवल्ली गाँव के ब्राह्मण करियप्पा के घर जब मैं पहुंचा तब मैंने उसे पहली बार देखा था. उस लड़की के बारे में बहुत संक्षेप में बताता हूँ कि उसका रंग गेंहुआ था. मुख देखने में सुंदर. भरी जवानी में गदराया हुआ शरीर. जब भी मैं देखता उसके होठों पर एक स्वाभाविक मुस्कान पाता. आँखों में बचपन की अल्हड़ता की चमक बाकी थी. दिन भर घूम फिर लेने के बाद रात के भोजन के पश्चात वह कमरे में आई और उसने मद्धम रौशनी वाली लालटेन की लौ को और कम कर दिया. वह बिस्तर पर मेरे पास आकार बैठ गयी. मैंने थूक निगलते हुए कहा ये गलत है. वह निर्दोष और नजदीक चली आई. फिर उसी न...