मन उष्णता से सिंचित एक सुबह को देखता है. ऐसी सुबह जो लौट-लौट कर आती है. नुकीले प्रश्नों की खरोंचों में आई तिलमिलाहट की स्मृति रक्ताभ रेशों की तरह आड़ी तिरछी मुस्कुराती रहती है. तलवों पर पुनः शीत बरस रहा है. धूप कच्ची है, उजास मद्धम है. रात्री का अवसान हो चुका है. प्रश्नों के मुख पर चुप्पी है. उत्तरों के मुख पर प्रश्नों की कड़वाहट की स्याह छवि है. एक घिरता हुआ हल्का स्याह अकेलापन है. एक प्रज्ज्वलित होती स्मृति है.
एक शांत, निरपेक्ष और निर्दोष मन हूक से भर उठता है.
रिश्तों से प्रश्न न करो. उनको भीतर से खोलकर मत देखो. उनको टटोलो नहीं. उनकी प्रवृतियों को स्मृतिदोष के खाने में रखो. चुप निहारो, सराहो, प्रसन्न रहो.
मन एक किताब उठाता है. सोचता है स्वयं को कोई रेफरेंस याद दिलाये. मन किताब का एक सौ बारहवां पन्ना खोलते हुए स्वयं को रोकता है. इस तरह के उद्धरण क्या भला करेंगे. अपनी प्रकृति और प्रवृति चिकनी मिटटी होती है. उस पर स्थिर होने का विचार तो जाग सकता है किन्तु अंततः वह स्वभाव के अनुसार ही व्यवहार करती है और फिसलन पर सब कुछ गिर पड़ता है. मन चुप्पी का सिरा थामता है. एक अनंत चुप्पी इस जगत की सबसे मूल्यवान वस्तु है. निर्दोष चुप से भली कोई स्थिति नहीं है.
कितने प्रहार और कितनी चीखें. कितनी उद्विग्न लज्जा की छवियाँ और कितनी क्रूर हंसी.
अनेक सम्बन्ध किसलिए?
मन डेविएशन की सीमा के पार उसकी तरफ कूद जाना चाहता है. वह जो उसका प्रिय जगत है. संभव है कि उसमें उसके जीने के ढंग में ढला जा सके. उसके प्रिय जीवन बहाव में बनते-छीजते सम्बन्ध देखकर हो सकता है कोई नयी परिभाषा सीख सके. मन समझ सके कि जिस अनेक की छुअन के पीछे वह गतिमान है, उसका आनंद क्या है? मगर फिर ये नहीं होता. मन अपने ही एकांत से सुख पाते हुए लौट जाता है. मन के साथ दूर से एक आवाज़ लौट आती है. उसे जीने दो अनेकों के साथ. उससे प्रश्न न करो. उसकी प्रसन्नता के साक्षी बनो.
मग से बाहर चाय के छलक जाने से कई लकीरें बन आई हैं. जैसे किसी रेगिस्तान पर किसी मटमैली नदी की स्मृति बची हो. जैसे कहीं दूर कोई कच्चा रास्ता दीखता हो. जैसे कि हर किसी के पास ऊब को किसी और रंग में रंगकर प्रस्तुत करने का हुनर होता है. जैसे हर कोई जानता है चले जाने का ठीक-ठीक बहाना.
[Sketch by Dario Moschetta]