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Showing posts from February, 2017

जोगी तुम्हारा घर इतना दूर क्यों है

दिल बीते दिनों के गट्ठर से कोई बात पुरानी खोजता है. एक सिरा सुलगा देता है. बात सुलगती रहती है. जैसे मूमल का इंतज़ार सुलगता था. महबूब ने काश पूछा होता कि "ओ मूमल तुम किसके साथ सो रही हो." एक धुंधली छवि देखकर हार गया. इस तरह गया कि लौटा तक नहीं. आह ! मोहोब्बत, तुम जितनी बड़ी थी. उतनी ही नाज़ुक भी निकली.  सूमल देखो हवा उसके बालों से खेल रही है बिना पासों का खेल. उसके ऊंट का रंग घुलता जा रहा है शाम में. वो अभी पहुंचा नहीं है किले की घाटी के पास फिर ये कौन चढ़ रहा है मेरे दिल की सीढियों पर. ये किसकी आवाज़ है धक धक धक. मेरी बहन मूमल ये ढका हुआ झरोखा काँप रहा है तुम्हारे इंतज़ार से. * * * ओ सूमल कौन संवारता होगा उसकी जुल्फें जो मैं बिगाड़ कर भेजती हूँ. कितने आईने चटक गए होंगे अब तक उसके चेहरे पर मेरी रातों की सियाही देखकर. मेरी कितनी करवटें झड़ती होंगी उसके सालू से. मेरी बहन मूमल वो कहाँ जाता है हर सुबह वो कहाँ आता है हर रात तुम्हारी कमर में हाथ डालती हैं कच्ची रातें तुम्हें बोसे देती हैं सुबह की हवा. पिया जितना पिया उससे बड़ा उसका स्मरण है. * * * सूमल मेरा जी चाहता है लिख दूँ उन सब चिड़...

पतनशील पत्नियों के नोट्स

फरवरी का पहला सप्ताह जा चुका है मगर कुछ रोज़ पहले फिर से पहाड़ों पर बर्फ गिरी तो रेगिस्तान में भी ठण्ड बनी हुई है. रातें बेहिसाब ठंडी हैं. दिन बेहद सख्त हैं. कमरों में बैठे रहो रजाई-स्वेटर सब चाहिए. खुली धूप के लिए बाहर आ बैठो तो इस तरह की चुभन कि सबकुछ उतार कर फेंक दो. रेगिस्तान की फितरत ने ऐसा बना दिया है कि ज्यादा कपड़े अच्छे नहीं लगते. इसी के चलते पिछले एक महीने से जुकाम जा नहीं रहा. मैं बाहर वार्मर या स्वेटर के ऊपर कोट पहनता हूँ और घर में आते ही सबको उतार फेंकता हूँ. एक टी और बैगी पतलून में फिरता रहता हूँ. याद रहता है कि ठण्ड है मगर इस याद पर ज़ोर नहीं चलता. नतीजा बदन दर्द और कुत्ता खांसी.  कल दोपहर छत पर घनी धूप थी. चारपाई को आधी छाया, आधी धूप में डाले हुए किताब पढने लगा. शादियों का एक मुहूर्त जा चुका है. संस्कारी लोगों ने अपनी छतों से डैक उतार लिए हैं. सस्ते फ़िल्मी और मारवाड़ी गीतों की कर्कश आवाज़ हाईबर्नेशन में चली गयी है. मैं इस शांति में पीले रंग के कवर वाली किताब अपने साथ लिए था. नीलिमा चौहान के नोट्स का संग्रह है. पतनशील पत्नियों के नोट्स.  तेज़ धूप में पैरों ...

कब तक बचोगे?

बौद्ध मठों की घंटी मोर का एक पंख बुद्ध की स्फिटिक मूरत. कितना कुछ तो है, ज़िन्दगी में. बस वे जो तीन तिल हैं न तुम्हारी गर्दन के नीचे उनमें से दो गायब हैं. * * * प्रेतबाधा के बारे में ये भी कहा जाता है कि वह दिवस अथवा रात्रि के एक निश्चित समय पर उपस्थित होती है. मेरे साथ भी कुछ रोज़ से ऐसा होने लगा है कि बारह बजते ही दफ्तर में बेचैन होने लगता हूँ. मेरे पांवों से पहले मन घर की ओर भागने लगता है. फिर मैं भी खिंचा हुआ चला आता हूँ. एक बजते ही बैडरूम में चला आता हूँ. मैं तेज़ी से कपड़े बदलता हूँ. अलमारी के हेंगर में टांगने की जगह दरवाज़ा टेबल जो भी दिखा वहीँ कपडे जमा. फिर अगले दस पंद्रह मिनट में नींद. चार पांच या छ बजे तक उठता हूँ. तब तक प्रेत बाधा जा चुकी होती है.  आज मैंने खींच तान कर इस समय को आगे सरकाया है. अभी तक जाग रहा हूँ. वैसे दिल कहता है सो जाओ, आखिर बुढापे से कब तक बचोगे? * * *

शर्त जो उसने रखी

ससुराल से आई मीठी बूंदी खा रहा हूँ। जितनी मीठी है उतनी ही सुन्दर भी। ज्यादातर पीली है मगर कुछ एक रानी रंग की भी है। इसी बूंदी में कुछ एक टुकड़े जलेबी के भी हैं। मैंने पक्का कर लिया था कि एक भी बूंदी गिरने न पाए। लेकिन ध्यान भंग हो रहा है। कुछ एक नीचे गिर रही हैं। मैं आस-पास देखता हूँ कि कोई है तो नहीं? फिर उसे उठाकर छोटे बच्चे की तरह फूंक मारकर मुंह में रख लेता हूँ। फिर आस पास देखता हूँ कि किसी ने देखा तो नहीं फिर मुंह चलाना शुरू करता हूँ। मेरे साथ एक लड़का पढ़ता था। वह अपना लंच लेने के लिए किसी एकान्त में जाता था। वहां वह उसे धीरे धीरे खाता था। खाते समय कहीं खो जाता था। जब भी वह देखता कि कोई उसे खाते हुए देख रहा है, वह लंच बॉक्स को बंद कर देता था। एकान्त, आपकी याददाश्त की मरम्मत करता है। * * * मैंने मुल्तवी कर दिया पूछना उसका नाम। शर्त जो उसने रखी, बेजा न थी। * * *