दिल बीते दिनों के गट्ठर से कोई बात पुरानी खोजता है. एक सिरा सुलगा देता है. बात सुलगती रहती है. जैसे मूमल का इंतज़ार सुलगता था. महबूब ने काश पूछा होता कि "ओ मूमल तुम किसके साथ सो रही हो." एक धुंधली छवि देखकर हार गया. इस तरह गया कि लौटा तक नहीं. आह ! मोहोब्बत, तुम जितनी बड़ी थी. उतनी ही नाज़ुक भी निकली. सूमल देखो हवा उसके बालों से खेल रही है बिना पासों का खेल. उसके ऊंट का रंग घुलता जा रहा है शाम में. वो अभी पहुंचा नहीं है किले की घाटी के पास फिर ये कौन चढ़ रहा है मेरे दिल की सीढियों पर. ये किसकी आवाज़ है धक धक धक. मेरी बहन मूमल ये ढका हुआ झरोखा काँप रहा है तुम्हारे इंतज़ार से. * * * ओ सूमल कौन संवारता होगा उसकी जुल्फें जो मैं बिगाड़ कर भेजती हूँ. कितने आईने चटक गए होंगे अब तक उसके चेहरे पर मेरी रातों की सियाही देखकर. मेरी कितनी करवटें झड़ती होंगी उसके सालू से. मेरी बहन मूमल वो कहाँ जाता है हर सुबह वो कहाँ आता है हर रात तुम्हारी कमर में हाथ डालती हैं कच्ची रातें तुम्हें बोसे देती हैं सुबह की हवा. पिया जितना पिया उससे बड़ा उसका स्मरण है. * * * सूमल मेरा जी चाहता है लिख दूँ उन सब चिड़...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]