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Showing posts from July, 2017

कभी इस तरह थाम सकोगे

टिंग टिंग टिंग ट्विंग सेलफोन में कोई वाद्य बजता रहता है. स्क्रीन एक बार नीला होने के बाद चमकने लगता है. अंगुलियाँ फोन नहीं उठाती. आँखें टेबल पर पड़े फोन को देखती रहती है. दोपहर की गहरी नींद ढली हुई शाम में खुलती है. रात आये ब्रश करते हुए. कई दिनों की बाकी शेव पर रेजर फिराते. कस्तूरी की गंध का आफ्टर शेव हथेली में लिए आईने में देखना. शोवर के नीचे खड़े हुए पानी की बूंदों को पीठ पर गिरते हुए महसूस करना. कुछ महीनों की गर्द से भरे काले जूतों को झाड़ कर सफ़ेद जुराबें खोजना. साल दो हज़ार ग्यारह की ख़ुशबू से भरी एक चेक वाली कमीज एनयू 87 और खाकी ट्राउजर. ड्रेसअप होकर कहाँ जाओगे? ड्रिंक लेने? बालकनी में खड़े यही सवाल दिल में आया था. कल रात उस वक़्त दस बजकर बारह मिनट हुए थे.  * * * ज़िन्दगी एक कहानी है. ये बहुत जगह स्किप होती रहती है. जीए हुए पलों की तस्वीर से बहुत से सीन गायब रहते हैं. याद के नन्हे गुरिल्ला सिपाही हमला करके छुप जाते हैं. अचानक चौंक कर बहुत पीछे किसी तनहा लम्हे में दूर तक फैली रेत पर बैठे हुए ख़ुद को याद आता हूँ. वह लगभग पूरे आसमान को देखने की एक रात थी. ...

तेरे वास्ते

मिरे वुजूद से शायद मिले सुराग़ तिरा कभी मैं ख़ुद को तेरे वास्ते तलाश करूँ। ~मोहसिन नक़वी

अक्सर

दोपहर का स्वप्न  साँझ की आहट से टूट जाता है.  किसी फूल के कान में  स्वप्न टांकते हुए सांझ ढल जाती है.  रात का पहला पहर  अभी बीत रहा होता है  घने अंधरे में अचानक लगता है  कि उस फूल की आँखें  ठीक सामने चमक रही है.  एक चौंक उतरती है.  हाथ बढाकर देख लूँ कि वह है?  मगर जो हाथ बढ़ा नहीं  उसमें एक लरज़िश है. कभी-कभी नींद के स्वप्न  और जाग के स्वप्न के बीच के  फासले पर धुंध उतर आती है.

जैसे दो लोगों के बीच कुछ बचा न हो.

कोई बात परेशां करती थी. बेवक्त याद आती. फिर मैं देर तक उसी में उलझा रहता था. इससे बाहर आने को ब्लोगर का ड्राफ्ट खोलता और लिखने लगता. कच्चे ड्राफ्ट जमा होते गए. जैसे किसी किशोर के मन में सम्मोहन जमा होते जाते हैं. वह नहीं जानता कि उन सबका क्या करेगा? मुझे भी नहीं मालूम था. दोस्तों ने कहा इन कहानियों की किताब बना लो. तीन साल लगातार तीन किताबें आ गयीं. एक रोज़ लगा किसलिए? अपने बचे पड़े ड्राफ्ट्स को नहीं देखा. कम-कम पढता था, ज्यादा-ज्यादा सोचता था. फ़ितरतन फिर नए ड्राफ्ट जमा होते गए. दुखों को दूर रखने का कोई रास्ता नहीं था. इसलिए उनको लिखकर अपने पास बिठाता गया. सबसे बड़ी तकलीफ होती है, बेमन हो जाना. तीन महीनों से लैपटॉप खोलता हूँ. जमा किये ड्राफ्ट की फ़ाइल तक जाता हूँ. फ़ाइल खुली पड़ी रहती लेकिन मैं किसी कहानी में नहीं जा पाता. ये एक उबाऊ सिलसिला बन गया. निराश होने लगता फिर हताशा आने लगती. मेरी कहानियां कहाँ गयी? मैं सोचता कि इस तरह मेरा मन कैसे सूख सकता है? क्यों पपड़ियाँ बनकर सोचने की ज़मीन टूटने लगती है? मैं बहुत परेशान रहा. फिर सोचा कि मैंने कहानी संग्रह पूरा कर लेना सोचकर ख़ुद...

मैं क्या कहता उसको?

तुम ख़ुशी की तलाश में  एक खंडहर के सामने खड़े हो.  हालाँकि मुझे तुम्हारे लिए ख़ुशी है. कि एक रोज़ तुम बीती ज़िंदगी को जानोगे. गुज़रे वक़्त के निशान पढना सीखोगे. समझोगे कि परमानन्द किसी साबुत चीज़ में नहीं है. बीज का परमानन्द मिट्टी, पानी और हवा के साथ मिलकर फूट जाने में हैं. शाखों का परमानन्द हरा रंग छोड़कर भूरे हो जाने में हैं. एक बेहद बूढ़े पेड़ का परमानन्द आँख मूंदकर ठूंठ हो जाने में है. इसी तरह हर एक जो ज़िन्दा है. उसका परमानन्द अपनी गति को पा जाने में है. प्रेम की भव्यता अधूरे होने में है और परमानंद नष्ट होकर बिखर जाने में.  * * * मैंने कहा- "अब जो भी लिखता हूँ बड़ा सतही और ग़ैर ज़रूरी सा लगता है." उस लड़की ने बहुत दिनों से रफ ड्राइव न किया था. सिगरेट बहुत रोज़ पीछे कभी पी थी. व्हिस्की के बारे में उसने कुछ बताया था मगर मुझे याद न रहा. उसने मेरी इस बात पर कहा- "केसी शराब को मेच्योर होने में वक़्त लगता है. आपने जो कुछ सात-आठ साल पहले लिखा है. वह आपको पसंद है. लेकिन यकीन जानो कि आज जो लिख रहे हो. वह सात आठ साल बाद वैसा ही अच्छा लगने लगेगा." शाम की हवा गुम थी...

धुएं के नीम नशे में स्वप्न

ये एक सामान्य दोपहर थी. उमस कम थी. एक सिगार के पैकेट में पड़े हुए कुछ सिगार बहुत पुराने हो चुके थे. क्या उनका स्वाद अब भी वैसा ही है. जबकि तम्बाकू पर बंधे हुए पत्ते में दरारें आ गयीं थी. बीस एक सिगारों में निचले वाली परत से उल्फत ने एक साबुत दीखता हुआ सिगार निकाला.- "लीजिये इसे ट्राय कीजिये." वह सिगार घुमाकर देखने से साबुत दिख रहा था. उसकी ख़ुशबू अभी तक काफ़ी बाकी थी.  शहर के स्टेशन रोड पर हलके बादलों की छाँव कभी कभी शामियाना तान रही थी. बाज़ार में लोग कम थे. शादियों का आखिरी सावा निकल चुका था. निम्बू वाले गायब थे. बारिशो में पिलपिले हुए आमों से ठेला भरे हुए खड़ा आदमी ख़ुद बेहद गंदा था. उसे देखते सिगार के धुंएँ को खींचने के यत्न करते हुए पाया कि सिगरेट से इसका स्वाद अलग है. जीभ पर एक नीम कड़वाहट उतर आई है मगर गला अभी धुएं की खरोंच से बचा हुआ है.  घर आया तो दोपहर अलसाने लगी. आँखों में नींद ने अपने पाँव पसार लिए.  और स्वप्न की आहट हुई.  विदेश में कहीं किसी काउंटी का क्लब था. जैसे हमारे बगीचे होते हैं. एक लम्बा रास्ता. उसके पास लोहे की फेंसिंग में हेजिंग ...