टूटे पंख की तरह
कभी दाएं, कभी बाएं
कि कभी हवा में तैरता मन।
आँखें पास की दीवार, छत, पेचदार सड़क या खुले आसमान की ओर रह जाती है जबकि मन चुपके से कहीं दूर निकल जाता है। मैं उसी जगह बैठा हुआ पाता हूँ कि खोया हुआ मन जहां गया है, वह कोई चाहना नहीं है। मन का जाना ऐसा है जैसे वह निरुद्देश्य भटक रहा है।
मैं उसे पकड़कर अपने पास लाता हूँ। उसी जगह जहां मैं बैठा हूँ। वह लौटते ही मुझे उकसाता है। अब क्या करें? मैं भी सोचता हूँ कि क्या करें? कुछ ऐसा कि नींद आ जाए। थकान आँखें बुझा दे। कोई मादक छुअन ढक ले। कोई नशा बिछ जाए। ये सब हो तो कुछ ऐसा हो कि जागने पर नींद से पहले का जीवन भूल सकें।
यही सोचते, मन फिर बहुत दूर निकल जाता है।
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पर्दा हल्के से उड़ता है
जैसे कोई याद आई और झांककर चली गयी।
हम किसी को बुलाना चाहते हैं मगर ऐसे नहीं कि उसका नाम पुकारें। हम उसके बारे में सोचते हैं कि वह आ जाए। वह बात करे। किन्तु हम इन बुलावों को मन में ही छुपाए रखना चाहते हैं।
कभी-कभी हम इस चाहना से शीघ्र मुक्त हो जाते हैं और कभी हम सोचने लगते हैं कि किस तरह उसे बुला लिया जाए और साथ ही ये भी न लगे कि हमने बुलाया है।
मेरी पलक से कोई बाल टूटता है तो मैं उसे कुछ देर अपनी अंगुलियों में छुपाये रखता हूँ। बाद में वह खो जाता है। बचपन में अभिलाषा की पूर्ति के लिए ऐसा हम खूब करते थे फिर ये छूट गया। लेकिन आज मैंने उसे बन्द उल्टी मुट्ठी पर रखा और कुछ नाम सोचे।
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[Painting Image credit : Tony Conner]