एक रस्म सी बन गई है तुझे भूल जाने को, तुझे ही याद करना। क्या कुछ नहीं बीतता। सब कुछ। माने कोई शै नहीं जो साथ बनी रहे। उदास, हताश, अवसाद से भरे मगर फिर भी किसी आस में कभी मुस्कुराते हुए कभी बेख़याली में कहीं चल पड़ते हैं। जब चल नहीं सकते तो चले जाने का स्वप्न देखते हैं। मैं हर बरस की आख़िरी शाम एक पोस्ट लिखता हूँ कि बरस कैसा था? इस बार याद ही नहीं कि शहर, देश और दुनिया में क्या घटा। कौन किस तरह, किस राह चला गया। क्या था जिसकी आस थी और इंतज़ार में उसी ढब बैठे रह गए। अपनों की पार्थिव देह से पटी हुई धरती को देखना सबसे भयावह था। पूर्व की पीढ़ियों की ज़ुबान से यदाकदा सुने गए महामारी के किस्सों में जो दहशत थी। उसी को अपनी आंखों से देखना, यही इस बरस का नग्न सत्य था। जिस पर डाले जा रहे पर्दे मौन आहों से चाक होते गए। आंसुओं का सैलाब पार्थिव देहों पर पड़ी ज़रा सी रेत को बहाकर ले गया। ये अविश्वसनीय, दुःखद और असहनीय था। समाज को बांटने वाली ज़ुबादराज़ राजनीति ने पिछले दशक में दुनिया के हर देश के नागरिकों को बांटा। इसी मंत्र से सत्ताएं हथियाई गईं। राजनीतिक हमले किए गए और मनुष...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]