बहाने से

 सब चकचकाचक है मगर 


अक्षय कुमार सज्जाद अली खान बने। हिन्दू लड़की से प्रेम किया और जान गवां दी। ये लक्षण सही नहीं है। कुछ तो गड़बड़ है। 


मुझे फ़िल्म देखने और समझने का शऊर नहीं है। शायद इसलिए फ़िल्म देखने का मन भी नहीं होता। हालांकि मैं बहुत बार फ़िल्म देखना आरम्भ करता हूँ मगर हद से हद पंद्रह मिनट देख पाता हूँ। 

मेरे भीतर अकूत ऊब है। वह मुझे एक जगह टिकने नहीं देती। कभी-कभी तीन-चार घण्टे कविता और कहानी पढ़ लेता हूँ। कि वहां तुरंत स्किप करके सर्फ किया जा सकता है। बस फ़िल्म ही है जो सब कलाओं को समेटे होती है उसे तुरंत स्किप नहीं किया जा सकता इसलिए बर्दाश्त के बाहर होने पर ही छोड़नी पड़ती है। 

आज सुबह आकाश बादलों से ढक गया। मुझे लगा कि छुट्टी के दिन यही मौसम होना चाहिए। बिस्तर में घुस जाएं। कुछ पढ़ते देखते रहें। 

हॉटस्टार पर नई फ़िल्म दिख गई। अतरंगी रे। न देख पाने की आशंका के साथ देखना आरम्भ किया। मैं मुस्कुराया। 

अतरंगी रे आप देखिए। पूरी फ़िल्म में अनेक फ़िल्मों के अंश याद आते रहेंगे। कटपेस्ट की बेहिसाब कारीगरी साथ चलती रहेगी। एक कमी खलेगी कि फ़िल्म में कोई वल्गर सीन या डायलॉग नहीं है। इस कमी के लिए आप शुक्रिया कह सकेंगे। 

फ़िल्म की नायिका मनोरोग से पीड़ित है। 

मैं इस फ़िल्म के साथ नहीं जुड़ पाता और अतीत में धंस जाता हूँ। नायिका की अम्मा को नायिका लेकर प्रकाश मेहरा ने अस्सी के दशक में मनोरोगी किरदारों से भरी एक फ़िल्म बनाई "चमेली की शादी" मैं जाने क्यों उसी फ़िल्म को याद करता रहा।

उस फ़िल्म के निर्देशक हैं बासु भट्टाचार्य। फ़िल्म एक रोमेंटिक कॉमेडी है लेकिन कुछ निर्देशक सामाजिक और मानसिक व्याधियों को उकेरने से ख़ुद को रोक नहीं पाते। 

फ़िल्म का आरंभ उस्ताद मस्तराम के अखाड़े के दृश्य से होता है। उस्ताद जी ब्रह्मचर्य के मनोरोग से पीड़ित हैं। वे अपने प्रथम व्याख्यान में कहते हैं। औरत गन्ने का रस निकालने वाली मशीन है। नरक का द्वार। वह आदमी को खोखला कर देती है। 

नायक चरणदास अपने बड़े भाई के साथ रहता है। वे हर समय दुनियादारी में खोए रहते हैं। उनके हिसाब से दुनिया में एक ही काम है। कमा कर लाओ। 

चमेली के पिता कल्लुराम कोयले बेचने वाले बनिए हैं। लेकिन असल में उनकी आत्मा बिरादरी के भीतर बसती है। जातिप्रथा और बिरादरी के भयावह रोग को उनके चरित्र में समझा जा सकता है। 

चमेली की एक सखी है जिसे फ़ीमेल उस्ताद मस्तराम कहा जा सकता है। वह अपने प्रेम के अनेक अनुभवों के पंख अपनी टोपी में लगाए रखती है। उसके कमरे में सिने स्टार्स के पोस्टर लगे हैं। वे पोस्टर लड़की के ख़्वाबों का अधूरा संसार है। जो कभी मुकम्मल न होगा। 

एक पात्र है, अफ़ीमची चाचा। ख़ुद नशे में ग़ाफ़िल रहता है लेकिन समाज बिरादरी के नाम की ठेकेदारी करता है। 

चमेली की माँ का मानना है कि लड़की अपनी पंसद का खसम ढूंढ रही है, तो ये अपराध है। 

एक वकील साहब हैं। वकालत का पेशा, पैरवी का पेशा है मगर वे झूठ गढ़ते हैं। 

कहानी में इन किरदारों को सामाजिक रूढ़ि और कुरीति के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है मगर वास्तव में ये सारे पात्र मनोरोग से ग्रसित हैं। 

नायक को पहली बार अहसास होता है कि वह रिबेल सलीम है और नायिका क़ैद कर ली गई अनारकली। नायक दोस्तों के साथ नायिका के पिता के ठिकाने वाली गली में प्रवेश करता है। 

सामने दीवार पर लिखा होता है "भगंदर का इलाज" 

ये एक कष्टदायक बीमारी है। किंतु समाज में इसे जिस रूप में देखा जाता है, वह अधिक कष्टप्रद है। शारीरिक व्याधियों के प्रति असंवेदनशील समाज से क्या अपेक्षा की जा सकती है। 

फ़िल्म का एक स्टिल जिसमें दीवार पर लिखा प्रचार एक सिम्बल है। वह प्रतीक कहता है कि कष्टप्रद बीमारी का इलाज संभव है मगर जातिवाद जैसी बीमारी का कोई इलाज नहीं है।

फ़िल्म कोई कहानी नहीं होती। वह अपने हर फ्रेम में एक सन्देश होती है। 

चमेली की शादी फ़िल्म बासु भट्टाचार्य की रूमानी पारिवारिक संवेदनशील फ़िल्मों की परम्परा की ही फ़िल्म है। मैं इसी तरह के ड्रामा देखते हुए थोड़ा सहज रहा। माने मन से देख सका। लेकिन मेरी प्रिय फ़िल्में गरम हवा जैसी रही। वे अब कहीं नहीं बनती।

अतरंगी रे, मैंने पूरी देखी। नायिका को देखकर अच्छा लगा। सहज अभिनय था। 

भारतीय सिनेमा में एक्टिंग करने का भूत ज़बरदस्त है। इस से कोई नायक नायिका बच न पाया। एक धर्मेद्र हैं, जिन्होंने अपने आपको महान कलाकार साबित करने जैसी एक्टिंग नहीं दिखाई। भले ही ख़राब फ़िल्में कर ली। 

फ़िल्म, कथा, कविता या किसी भी कला का आलोचक कभी नहीं बनना चाहिए। उसके रस और अनुभूति का आनंद लेना चाहिए। यही आनंद दुर्लभ है। इसलिए अक्सर स्मृतियां घनघोर होकर छा जाती है। 

अतरंगी रे एक ऐसा ड्रामा है। जो इस पीढ़ी के बरबाद, गुंजलक और दृष्टिहीन समय से आसानी से डेढ़ घंटा चुरा सकता है। मेरे जैसा व्यक्ति उन फ़िल्म दीवानों को कोस सकता है। जो विश्व सिनेमा की क्लासिक फ़िल्मों का गुणगान करता है और मैं किसी फ़िल्म के साथ टिक कर बैठ नहीं सकता। 

सबके अपने मनोरोग है। सबके पास दवा नहीं है।

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