हाथी एक भद्र व्यक्तित्व है।
~रुडयार्ड किपलिंग
हाथी चला जा रहा था। सुबह साढ़े नौ बजे एफसीआई के सामने था। दोपहर दो बजे स्टेशन रोड पर था। उसके पिछले कूल्हों पर फूल उकेरे हुए थे। उसके पांव कीचड़ से सने थे। उसका एक दांत बेढब था।
उसकी पीठ पर एक मामूली हौदा था। हाथी की बेबसी की शक्ल का हौदा। हौदे के गद्दी तो थी मगर उसकी पुश्त न थी। हौदे की गायब पुश्त की तरह हाथी की पुश्तें कहाँ छूट गई थी, ये जानना असंभव था।
हाथी की चाल चलने की बात याद आई। मैंने ठहर कर देखा कि हाथी कैसे चल रहा है? उसकी मद्धम लय क्या कोई स्थायी चाल है? शायद नहीं। मैंने कहीं आवेशित या आक्रोशित हाथियों को भी देखा था। इसलिए ये कहना ठीक है कि हाथी की चाल मतवाली होती है लेकिन ये कोई स्थायी बात नहीं है।
हाथी की याददाश्त के बारे में कहीं पढा था। वे बचपन की बात और रास्ते को बुढ़ापे तक नहीं भूलते। हाथी की दुर्लभ इच्छा के बारे में जाना कि वे अपने पूर्वजों की जगहों पर जाना चाहते हैं। वहां जाकर अक्सर गंभीर हो जाते हैं। वे उनके होने की स्मृति को बार-बार जी सकते हैं। यही अद्भुत है।
मैंने दस बारह बरस की उम्र में पहली बार हाथी देखे थे। रेलवे स्कूल के रास्ते में एक मैदान में खड़े नीम के बड़े पेड़ के नीचे बैठे या लेटे हुए थे। वे गोबर के बड़े पिण्डारे जैसे दिख रहे थे। मुझे उनके पास जाने की उत्सुकता नहीं हुई। मैंने अपना बस्ता सम्भाला और घर की ओर बढ़ गया।
इसके बाद आगे के जीवन में बार-बार ख़बरों में हाथी पढ़ने को मिले। वे उद्दात थे, उनमें आवेश था, वे मद से भरे थे, उनमें सहवास करने का पागलपन था। वे आदमियों को चींथ रहे थे। वे बेतहाशा भाग रहे थे। वे रास्ते में आई किसी भी चीज़ को ध्वस्त कर रहे थे।
हाथी उतने ही भद्र रहे होंगे जितना कि प्रेम होता है। शायद प्रेम हाथी ही होता है।
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आज दोपहर स्टेशन रोड बाड़मेर पर एक बंदी हाथी।