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Showing posts from April, 2022

बता दो कि तुम हो।

शराबियों का नियम है  कि झगड़ना है, हिंसक हो जाना है  फिर एक दूजे पर गिर पड़ना है।  प्रेमियों का हाल इनसे भी बुरा हैं।  ~रूमी  [जलाल उल दीन मोहम्मद रूमी 1207 से 1273 तुर्की] मेरा हाल इन दोनों से खराब रहता है कि मैं सोशल साइट्स पर एक मुकम्मल ऐंटीसोशल की तरह रहता हूँ। हर जगह हूँ और कहीं भी सोशल नहीं हूँ।  मेरे फॉलोवर नहीं है। मेरे दोस्त हैं। चाहे वे फेसबुक पर हों, इंस्टा, ट्विटर, ब्लॉगर और भी कहीं हो। मैं उनके संदेशों का, अपनेपन का, प्रेम का जवाब नहीं दे पाता।  अखरता ही होगा मगर क्या कीजे।  कोई किताब मंगवाता है तो सूचित करता है। वह अपना प्रिय माध्यम चुनता है। मैं सब प्लेटफॉर्म्स से उकताए हुए रहता हूँ। दोस्तों और पाठकों के मैसेज देखकर बेहद प्रसन्न होता हूँ लेकिन समझ नहीं आता कि उनको जवाब में क्या कहूँ?  इसलिए शुक्रिया हमेशा समझा जाए।  बहुत बरस हुए। जाने कितने बरस। लिखने वालों के लिए मेरे भी गहरे सम्मोहन रहे हैं। वे अजीर्ण हैं। किसी आहट, किसी झांक, किसी धुएं की गंध, ऑटो के भीतर तक आती हवा की अनूठी महक, बेजान और रूखी सड़क पर सबसे अधिक आत्मीय यात्...

तस्वीरों में दुःख

मनुष्य को निकट से देखोगे। उसके दुःख को समझने की कोशिश करोगे। उसकी आवाज़ बनोगे तो तुम सच्चे मनुष्य बन जाओगे।  जीवन तो सबका गुज़रता ही है।  सोनी ने इस वर्ष के लिए प्रोफेशनल फ़ोटोग्राफ़र ऑफ ईयर का पुरस्कार एडम फर्ग्युसन को दिया है।   फ़ोटो खींचने की तकनीक में कमाल की प्रगति हुई है। लेंस और बॉडी गुणवत्ता से ऐसी तस्वीरें खींची जा सकने लगी हैं कि हम उन पर सहसा विश्वास नहीं कर सकते।  इतने क़ीमती कैमरा एडम के पास नहीं थे। उनके पास साधारण कैमरा था। एक ट्राइपॉड और एक केबल। लेकिन महंगे कैमरा वाले फ़ोटोग्राफ़र्स से एक अतिरिक्त चीज़, उनके पास थी। मनुष्यता।  एडम ने अमेरिका में प्रवेश करने की राह देख रहे शरणार्थियों के जीवन का डॉक्यूमेंटेशन किया था। उन्होंने ज़िंदा रहने के लिए शरण मांगने वाले लोगों के दुःख को, उनके असहाय जीवन को तस्वीरों में उतारा।  अपने आस पास के जीवन को देखिए। उसकी तकलीफ़ों को लिखिए। हर प्राणी की मदद की सोच रखिये। मनुष्य बनने की ओर बढिए।  [सूचना स्रोत - रेडिफ न्यूज़]

कट ही जाएगा सफ़र

कड़ी धूप के दिन है। मैं छाया में स्कूटर खड़ा किए हुए इंतज़ार कर रहा हूँ। एक बुजुर्ग का हाथ थामे हुए नौजवान मेरे पास से गुज़रता है। बुजुर्ग ऊंची कद काठी के हैं। उनके चेहरे पर न तो बेबसी है ना नाराज़गी। उनके साथ चल रहे नौजवान के हाथ में एक थैली है। एक डॉक्टरी जांच का कोई लिफ़ाफ़ा।  बा ने पगरखी पहन रखी है मगर नौजवान रबर के स्लीपर पहने हुए है। अचानक उसके पैरों की जलन मेरी पगथलियों को झुलसा गई।  बेपरवाह रेगिस्तान का जीवन चलता रहता है।  मेरे फ़ोन में सुबह से मुस्तफ़ा ज़ैदी की कही ग़ज़ल, चले तो कट ही जायेगा सफ़र मुसर्रत नज़ीर की आवाज़ में प्ले हो रही है। मैं हैडफ़ोन उतारकर अपने डाकिया थैले में रख लेता हूँ। हेलमेट उतारते ही पसीना गर्दन को चूमता हुआ कमीज़ के कॉलर तक ढल जाता है।  रेगिस्तान के लोग आग के फूल हैं। उनका जीवन धूप में खिलता है और उसी में कुम्हला जाता है।

रूठी रानी

उमादे उपन्यास क्यों पढ़ना चाहिए?  रूठी रानी के नाम से प्रसिद्ध उमादे भटियानी के जीवन पर डॉक्टर फतेहसिंह भाटी का उपन्यास पाठकों के बीच है। डॉ भाटी ने इस ऐतिहासिक उपन्यास का शीर्षक उमादे रखा है।  उमादे केवल रूठी रानी या भटियाणी माने भाटी घराने भर की नहीं है। वह एक सम्पूर्ण स्त्री है। पुरुषप्रधान सामाजिक व्यवस्था में रूठने की इकहरी छवि में स्मृत की जा रही स्त्री के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को पाठकों के समक्ष रखना इस रचना का उद्देश्य है।  कथावस्तु- पंद्रहवीं शताब्दी के पहले दशक से छठे दशक के मध्य की कहानी है। जैसलमेर राजघराने की राजकुमारी उमादे इसका केंद्रीय पात्र है। राव मालदेव के काल को राजपूताने का शौर्यकाल कहा जाता है। उमादे इन्हीं मालदेव की ब्याहता थी। ये उमादे के स्त्री स्वाभिमान, सम्मान और अधिकार की रक्षा की कहानी है। ये उपन्यास उमादे के जन्म से आरम्भ होकर राव मालदेव की मृत्यु पर सम्पन्न होता है।  चरित्र चित्रण- उमादे एक स्वाभिमानी स्त्री है। राव मालदेव अत्यधिक भोगविलास में निबद्ध रहने वाला वीर शासक है। भारमली दासी है किंतु असहाय परिस्थिति में भी अपनी राजकुंवरी के लिए अ...

चंद तस्वीरें बुतां

एक शेर को लेकर कुतूहल हुआ। मैंने उसके लिए कुछ खोजबीन की लेकिन नाकामी हाथ लगी। एक तो उर्दू का अलिफ बे नहीं आता। दूजा लिपि से पूरी तरह अनभिज्ञ, इसलिए दोनों शेर लिखकर पोस्ट कर दिए।  कुछ उर्दूदाँ मेरी पोस्ट पढ़कर इधर आते तब तक डरे-डरे मन से रेख़्ता में झांका। उर्दू कविता को सहेजने और लोकप्रिय करने का काम करने वाली इस वेबसाइट का मानना है कि बज़्म अकबराबादी का कहा शेर इस तरह है-  चंद तस्वीरे बुतां चंद हसीनों के ख़ुतूत  बाद मरने के मेरे घर से ये सामां निकला।  पर्शियन भाषा के एक उस्ताद ने लिखा है कि चंद तस्वीरें बुतां शेर एक प्रसिद्ध शायर के नाम मढ़ दिया गया है। उनका इशारा मिर्ज़ा ग़ालिब की ओर है, ऐसा मुझे लगता है।  वे सज्जन एक बहस में कह रहे हैं कि बज़्म अकबराबादी के शेर को बदल कर ये शेर कहा गया है। उनका कहना है कि बज़्म अकबराबादी का शेर ये है-  इक तस्वीर किसी शोख़ की और नामे चंद  घर से आशिक़ के पस-ए-मर्ग यही सामां निकला।  थोड़ी सी देर में एक दोस्त का मैसेज आ गया। उनका कहना है कि ये मिर्ज़ा साहब की भाषा और सलीका नहीं है। इसके साथ ही उन्होंने वह ग़ज़ल भी भेज दी, जिसमें ...