कड़ी धूप के दिन है। मैं छाया में स्कूटर खड़ा किए हुए इंतज़ार कर रहा हूँ। एक बुजुर्ग का हाथ थामे हुए नौजवान मेरे पास से गुज़रता है। बुजुर्ग ऊंची कद काठी के हैं। उनके चेहरे पर न तो बेबसी है ना नाराज़गी। उनके साथ चल रहे नौजवान के हाथ में एक थैली है। एक डॉक्टरी जांच का कोई लिफ़ाफ़ा।
बा ने पगरखी पहन रखी है मगर नौजवान रबर के स्लीपर पहने हुए है। अचानक उसके पैरों की जलन मेरी पगथलियों को झुलसा गई।
बेपरवाह रेगिस्तान का जीवन चलता रहता है।
मेरे फ़ोन में सुबह से मुस्तफ़ा ज़ैदी की कही ग़ज़ल, चले तो कट ही जायेगा सफ़र मुसर्रत नज़ीर की आवाज़ में प्ले हो रही है। मैं हैडफ़ोन उतारकर अपने डाकिया थैले में रख लेता हूँ। हेलमेट उतारते ही पसीना गर्दन को चूमता हुआ कमीज़ के कॉलर तक ढल जाता है।
रेगिस्तान के लोग आग के फूल हैं। उनका जीवन धूप में खिलता है और उसी में कुम्हला जाता है।