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माया

हेल्युसिनेशन तो माया ही है किंतु एकाधिक अनुभूतियाँ इस तरह गुम्फित होती है कि समझ नहीं आता ये माया, भ्रम, कोरी कल्पना, विभ्रम अथवा कुछ और है। 

बरसों पीछे का फेरा देने के बाद मन दिग्भ्रमित हो जाता है। याद में जो बातें थीं, उनसे अधिक लगभग बेहिसाब बातें फिर से पढ़ लेना एक तरह से ओवरलोड ही जाना था। आधी रात को नींद उचटती। डर लगता कि आह ये कहीं आधी रात तो नहीं। अब नींद न आई तो?

असल में नींद उन जगहों पर पहुंच जाने के स्वप्न से ही चटकती। वे जगहें, जो दशक भर पीछे छूट चुकी। उस समय का अब कोई साथी भी नहीं। वहां तक लौटा जा सकता है, न उस से बाहर आया जा सकता है। 

जीवन के अवसान के बारे में कुछ नहीं सोचता हूँ मगर चीज़ें इस तरह शक्ल लेती हैं कि उनमें उलझा खोया सिहरता रहता हूँ। ये भी बीत गया, वह भी चला गया और जाने कितना बचा है? सन्देह, भय और पीड़ा। बस इतना भर आधी नींद या अधखुली नींद में होता है।

कविता के रूप में कही बेवजह की बातों की तलाश में अतीत में इतना गहरा क्यों उतरा। मैंने एक किताब को शक्ल देने की दोबारा कोशिश क्यों की। ये सोचता हुआ सुबह से पहले के वक़्त में सो जाना चाहता हूँ। शहर की रात गर्म है। एसी की हवा उतनी ही फ़रेबी है जितना कि जिए जाने का यकीन। 

इस तरह के सदमे कितने गहरे होते हैं? ये लिखना मैंने अभी सीखा नहीं है। मैं किसी से कुछ कह देना चाहता हूँ। मैंने किसी से कुछ कह उसके लिए माफी मांग लेना चाहता हूँ। 

सबकुछ माया है मगर मैं बार बार कोशिश करता हूँ कि एक मुलाक़ात हो सके। बस एक। 

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