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Showing posts from June, 2025

डॉ सोमवीर जाखड़ – एक वीराना उग आया

क्या फूल भी किसी फूल की स्मृति में उदास होते हैं? इस बात का ठीक जवाब दे सकने वाला आँखों से ओझल हो चुका था। यहीं-कहीं होने की ख़ुशबू को हाथ बढ़ाकर छुआ नहीं जा सकता था। सब एक दूसरे को छूकर पता कर रहे थे। हर छुअन में एक अतिरिक्त रुलाई दीवारों से टकरा कर दिल को बींधती रही।  पनियल आँखों से रुलाई की लकीरों से भरे चेहरे को नहीं देखा जा सकता है। इसलिए आँखें बाहर देखना चाहती है। बाहर वीराना है। इतनी ख़ाली जगह पर सांस नहीं आती। ख़ालीपन एक भीड़ की तरह घेर लेता है। ख़ालीपन रौंदता हुआ गुज़रता है। मन पददलित होता हुआ पुकारता रहता है। कि क्या तुम इस सब को कहीं से देख रहे हो?  क्या तुमको पता है? तुमसे किसी को झगड़ने, गले लगने और रूठने-मनाने के लिए नई उम्र चाहिए होगी। मैंने देखा तुमको जीवन से भरा हुआ। प्रसन्नता से तेज़ कदम चलते हुए , चुप बैठे हुए अचानक उचक कर मुसकुराते हुए , किसी बात पर गंभीर होते हुए और फिर कहते हुए कि अपना तो क्या ही था। बड़ी मुश्किल से जगह बनाई। विश्वविद्यालय के तीन नंबर गेट के पास जब हम पहुंचे तो मैंने कहा “वो सामने चाय की थड़ी और दुकान दिख रही है ? हम देर रात को दोनों यह...