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Showing posts from June, 2025

एक दिन तुम हवा हो जाओगे

सुबह के साढ़े आठ बजे के आस पास का समय था। हाइवे पर यातायात रोक दिया गया था। हमने अपनी कार को थोड़ा सा पीछे लिया और रोड साइड ढाबा के आगे लगा दिया। मैं वाशरूम होकर आया तब तक आभा ने पोहा और चाय का कह दिया था।   सुबह सात बजे जयपुर से चले थे और डेढ़ घंटे बाद अजमेर की ओर मोखमपुरा से एक किलोमीटर पहले पहुंचे थे। वहाँ मिथेन गैस का टैंकर पलट गया था। ये चिंता की बात थी कि कुछ समय पूर्व इसी हाइवे पर गैस टैंकर रिसाव और आग से बीस लोगों की असामयिक मृत्यु हो गई थी। भयावह हादसे में जली गाड़ियों के कंकाल हाईवे के आस-पास पड़े, दुर्घटना की भयवाहता का एक खाका खींचते रहते थे।  पोहा खाते हुए मैंने व्हाट्स एप पर फैमिली ग्रुप में संदेश किया। बगरू से आगे नासनोदा के पास जाम लगा है। लौटने वाले कह रहे हैं कि गैस टैंकर पलट गया है। गूगल कोलाइजन बता रहा है। हम एक रेस्तराँ के आगे रुक गए हैं।  हमारे पास की टेबल पर तीन लोग बैठे थे। भले थे, सभ्य थे। वे पास के गाँव में ज़मीन ख़रीदने जा रहे थे। उनकी प्लेट्स में पराँठे थे। अचार था। साथ में दही भी था। अपने खाने में मगन थे। उनमें से एक आदमी अभी दस...

समय की बारिशें

माँ और बेटी खेल रहे थे। मौसम में सीलापन था। बारिश रह-रहकर गिर रही थी। छठे माले की खिड़कियों से देखने पर कुछ हाथ की दूरी पर बादल तैर रहे थे। मैं आदतन ख़यालों में खोया हुआ। कल्पना के सांपों पर सवार था। वे साँप इसलिए थे कि सीधे चलते हुए भी डरावने बल खाते भाग रहे थे।  हज़ार एक किलोमीटर कार में चलने से दिमाग़ में बस जाने वाले हिचकोले यथावत थे और तय था कि दो दिन बाद बाड़मेर लौट जाना है। जैसे केंकड़े सीपियों के खोल में घुसकर ख़ुश हो जाते हैं, ठीक ऐसे ही मेरा रेगिस्तान लौटना होता है। वहाँ लौटने से पहले यहाँ लगातार बारिश को देखना अलग सुख था।  सब जगहों की बारिशें अलग होती हैं। आँखों की बारिशें सबसे अलग होती हैं। कभी ख़ुशी, कभी उदासी, कभी प्रतीक्षा या किसी भी भावबोध में आँखें अलग तरह से बरसती हैं। धरती पर होने वाली बारिशें भी इसी तरह बहुत अलग हैं।  रेगिस्तान की कड़क गर्मी के बाद उमस जब चरम पर पहुंचती है। बादल अचानक बेसब्री से बरसने लगते हैं। जैसे उनको तुरंत लौट जाने की हड़बड़ी हो। सचमुच वे घनघोर बारिश भी करें तो भी घड़ी भर में गायब हो जाते हैं। आकाश खुलकर साफ़ हो जाता है। मिट्ट...

डॉ सोमवीर जाखड़ – एक वीराना उग आया

क्या फूल भी किसी फूल की स्मृति में उदास होते हैं? इस बात का ठीक जवाब दे सकने वाला आँखों से ओझल हो चुका था। यहीं-कहीं होने की ख़ुशबू को हाथ बढ़ाकर छुआ नहीं जा सकता था। सब एक दूसरे को छूकर पता कर रहे थे। हर छुअन में एक अतिरिक्त रुलाई दीवारों से टकरा कर दिल को बींधती रही।  पनियल आँखों से रुलाई की लकीरों से भरे चेहरे को नहीं देखा जा सकता है। इसलिए आँखें बाहर देखना चाहती है। बाहर वीराना है। इतनी ख़ाली जगह पर सांस नहीं आती। ख़ालीपन एक भीड़ की तरह घेर लेता है। ख़ालीपन रौंदता हुआ गुज़रता है। मन पददलित होता हुआ पुकारता रहता है। कि क्या इस सब को कहीं से देख रहे हो?  क्या  आपको  पता है? आप से  किसी को झगड़ने, गले लगने और रूठने-मनाने के लिए नई उम्र चाहिए होगी। मैंने देखा आपको जीवन से भरा हुआ। प्रसन्नता से तेज़ कदम चलते हुए , चुप बैठे हुए अचानक उचक कर मुसकुराते हुए , किसी बात पर गंभीर होते हुए और फिर कहते हुए कि अपना तो क्या ही था। बड़ी मुश्किल से जगह बनाई। विश्वविद्यालय के तीन नंबर गेट के पास जब हम पहुंचे तो मैंने कहा “वो सामने चाय की थड़ी और दुकान दिख रही है ? हम देर रात...