आदमी को अब फर्क मालूम नहीं होता, उसके चहरे पर नहीं आती ख़ुशी और चिंता की लकीरें कि दुनिया में मुर्दा सीरत वाले ईश्वर ही बचे हैं. मगर भूलो नहीं की हमें यहाँ तक अंगुली पकड़ कर कोई नहीं लाया था, ज़रा पिछली गली में देखो. हमारे क़दमों के साझा निशान बचे हुए हैं... ज़िन्दगी की दुकान खुली हो तो फ़र्ज़ है कि बाज़ार से गुज़रे को उम्मीद से देखें. आप ज़रा ज्यादा पहचान की हैं तो सोचा कि कहूँ आओ, बैठो इस पास वाले स्टूल पर मिल कर उम्मीद करते हैं सूरज के डूबने से पहले बोहनी हो जाये. कि अब तक इसी तरह ज़िन्दगी बसर करने की आदत है मुझको. जब तक आता है कोई बताओ उस लड़के के बारे में जिसे आपसे बिछड़ने में लगता था डर और यकीनन आप कहेंगी कि शहर बस गए हैं दूर दूर तक मगर केक्टस की नस्लें भी हो गई है बेशुमार. मेरी ज़िन्दगी के बारे में न पूछना मैं उस जायरीन की बात दोहराऊंगा कि दादा अमरुदीन की दरगाह तक आने में जिनको उठानी पड़ती है तकलीफें ख़ुदा उन्हीं का हमराह होता है. और फिर सुख के लिए छींके में पुराने अंडे की तरह लटके रहना भी कोई ज़िन्दगी है. कभी उठाना चाहिए कौ़म के लिए भी ह...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]