Skip to main content

कहीं नहीं है, कोई...


दिन का डेढ़ बजा था, कुछ देर और बात की जा सकती थी. लेकिन जो बातें होती, वे शायद मुझे रोक कर नहीं रख पाती. दोपहर ज्यादा गरम नहीं थी. बरसों से चालीस के ऊपर की गरमी में जीने की आदत है. तो क्या करूं? कोई काम नहीं था. मुझे शाम पांच बजे से दस मिनट पहले तक स्टूडियो में होना चाहिए था. उससे पहले ये कोई तीन घंटे...

बहुत नहीं होते हैं तीन घंटे मगर कई बार कुछ लम्हे भी शायद कट न सकें किसी भी आरी से. घर के पहले माले की सीढ़ियों से उतरते हुए सोचता हूँ कि क्या बुरा है अगर अभी चला जाऊं दफ्तर. मैं कुछ डबिंग का काम कर लूँगा. चलो उठ जाता हूँ... फिर जाने क्या सोचता हुआ पलंग का सहारा लिए बैठा रहता हूँ.

एक बार देखूं क्या? नहीं... क्या कहूँगा कि शाम हसीन हो, रात अच्छी बीते. वैसे भी हर हाल में फूल मुरझाते जाते हैं और सब आबाद रहता है. आज का एक दिन और डूब जायेगा. अच्छा, आज पिजन बॉक्स में कुछ न मिलेगा. परसों रात सब ख़त्म. बची हुई कुछ बूँदें भी न होगी.

एक घंटा बीत गया है, अभी कहीं नहीं गया हूँ. फर्श पर बैठा हुआ ऑफिस के बारे में सोचता हूँ कि कितना अच्छा होगा. शाम के सात बजने के बाद डूबते सूरज का हल्का अँधेरा स्टूडियो के आगे फैला होगा. एक सिक्युरिटी गार्ड के सिवा वीकेंड पर दफ्तर में कौन मिलता है. यूं बाकि सभी दिनों भी स्टूडियो खाली खाली सा ही होता है. सीढ़ियों पर बैठ कर शाम को बुझाया जा सकता है.

कॉफ़ी पीते हुए चार बज गए. मुझे फिर लगा कि देखना चाहिए, वह शायद हो वहां पर... मगर उठ कर आईने में देखता हूँ. अपने सेल पर हाथ रखता हूँ. उसे आवाज़ दूं, एसएमएस करूं? न, कुछ न करो. बस ऑफिस जाओ. बाइक पर बैठे हुए लगता है कि फोन वाईब्रेट हुआ. नहीं ऐसे ही लगा होगा. रास्ता मुझे अपने आप खींचता रहता है. ऑफिस केम्पस में सर से हेलमेट उतारते हुए लगता है कि गरमी वाकई ज्यादा है. बाल भीग गए हैं... नीम की सूखी पत्तियां फिर से उतर आई है, स्टूडियो के आगे.

सात बज कर तीन मिनट. एक ख़याल कि इस वक़्त बाहर शाम सबसे सुन्दर होगी. किसी के साथ होने से और भी अधिक सुन्दर.... क्या रात भी गहरी होने वाली है. मेरे भीतर से कोई कहता है कि बिल्कुल सच्ची बात है. वह मुझे ये नहीं समझाता कि तुम ये सब किसलिए सोच रहे हो. मैं क्यू शीट में देखता हूँ कि कुछ ऐसा बचा तो नहीं जिसे टेप लाईब्रेरी से लाना हो. नहीं मेरे पास सब था.

वक़्त और बेचैनी मिल कर मुझे सताने लगते हैं. सामने शीशे के पार कंट्रोल रूम के कंसोल पर बैठा एक पुराने दिनों का साथी सामने के पैनल में लगे डीटीएच टीवी पर किसी ख़बर को गौर से देख रहा है.  मुझे कुछ और करना चाहिए. मैं पिछले तीन महीने से जमा हुए दोस्तों और अजनबियों के संदेश मिटाने लगता हूँ. थक जाता हूँ. स्टूडियो की कुर्सी पर आधा ज़मीन पर लटके हुए देखता हूँ कि एस्बेस्टास की कुछ शीट्स अपनी जगह से सरक गयी हैं. दीवार के एक कोने का वाल पेपर उखड़ आया है. चेंज ओवर का एनाउन्समेंट करके फिर से छत को देखना चाहता हूँ, मगर देख नहीं पाता हूँ. बाहर चलो.

बाहर कुछ दफ्तर के ही कुछ लोग खड़े हैं. मैं पूछता हूँ कि आप लोगों के पास कुछ है या ऐसे ही खड़े हो. सबने एक साथ कहा. हाँ सर है. आर्मी केन्टीन से आई एक घटिया सी रम की बोतल. मैं फिर भी खुश हो जाता हूँ. ख़ुशी या अफ़सोस को चहरे से हटा कर पीने लगता हूँ. सर आज जल्दी है? अरे नहीं मेरे पास आज बहुत फुरसत है. सामने कुछ नमकीन रखी है और कुछ कच्चे प्याज की फांकें हैं. बाकि सिर्फ चुप्पी है कि वे चुप हैं. मैं भी...

शोर करते हुए पत्ते भी चुप हो जाते हैं. अँधेरा काफी घिर आया है. पूछता हूँ कि कोई है क्या? कहीं नहीं है, कोई... भीतर से आवाज़ आती है. मैं फिर से इस जवाब देने वाले का शुक्रिया कहते हुए उठ जाता हूँ. आठ पंद्रह होने को है, फिल्म म्यूजिक का वक़्त हुआ. सुखविंदर को प्ले करूँगा फिर खुद से कहता हूँ हरगिज नहीं आज ऊषा उथुप से शुरू करूँगा.. फिर भूल जाता हूँ कि आगे क्या बज रहा है. कोई गीत खोजता हूँ लेकिन मिल नहीं पाता... जाने दो, विज्ञापन क्यू करो... स्कूल चले हम.

इंतज़ार करो.... अचानक पाता हूँ कि ट्रांसमिशन ओवर हो गया. रात के ग्यारह दस बज गए शायद काफी देर हो गयी. है ना? इतनी भी कहां कि इंतज़ार बुझा दिया जाये.... आह एक अप्रेल हो आई है. मूर्खों का दिवस शायद प्रेमियों का भी...

Popular posts from this blog

स्वर्ग से निष्कासित

शैतान प्रतिनायक है, एंटी हीरो।  सनातनी कथाओं से लेकर पश्चिमी की धार्मिक कथाओं और कालांतर में श्रेष्ठ साहित्य कही जाने वाली रचनाओं में अमर है। उसकी अमरता सामाजिक निषेधों की असफलता के कारण है।  व्यक्ति के जीवन को उसकी इच्छाओं का दमन करके एक सांचे में फिट करने का काम अप्राकृतिक है। मन और उसकी चाहना प्राकृतिक है। इस पर पहरा बिठाने के सामाजिक आदेश कृत्रिम हैं। जो कुछ भी प्रकृति के विरुद्ध है, उसका नष्ट होना अवश्यंभावी है।  यही शैतान का प्राणतत्व है।  जॉन मिल्टन के पैराडाइज़ लॉस्ट और ज्योफ्री चौसर की द कैंटरबरी टेल्स से लेकर उन सभी कथाओं में शैतान है, जो स्वर्ग और नरक की अवधारणा को कहते हैं।  शैतान अच्छा नहीं था इसलिए उसे स्वर्ग से पृथ्वी की ओर धकेल दिया गया। इस से इतना तय हुआ कि पृथ्वी स्वर्ग से निम्न स्थान था। वह पृथ्वी जिसके लोगों ने स्वर्ग की कल्पना की थी। स्वर्ग जिसने तय किया कि पृथ्वी शैतानों के रहने के लिए है। अन्यथा शैतान को किसी और ग्रह की ओर धकेल दिया जाता। या फिर स्वर्ग के अधिकारी पृथ्वी वासियों को दंडित करना चाहते थे कि आखिर उन्होंने स्वर्ग की कल्पना ही क्य...

टूटी हुई बिखरी हुई

हाउ फार इज फार और ब्रोकन एंड स्पिल्ड आउट दोनों प्राचीन कहन हैं। पहली दार्शनिकों और तर्क करने वालों को जितनी प्रिय है, उतनी ही कवियों और कथाकारों को भाती रही है। दूसरी कहन नष्ट हो चुकने के बाद बचे रहे भाव या अनुभूति को कहती है।  टूटी हुई बिखरी हुई शमशेर बहादुर सिंह जी की प्रसिद्ध कविता है। शमशेर बहादुर सिंह उर्दू और फारसी के विद्यार्थी थे आगे चलकर उन्होंने हिंदी पढ़ी थी। प्रगतिशील कविता के स्तंभ माने जाते हैं। उनकी छंदमुक्त कविता में मारक बिंब उपस्थित रहते हैं। प्रेम की कविता द्वारा अभिव्यक्ति में उनका सानी कोई नहीं है। कि वे अपनी विशिष्ट, सूक्ष्म रचनाधर्मिता से कम शब्दों में समूची बात समेट देते हैं।  इसी शीर्षक से इरफ़ान जी का ब्लॉग भी है। पता नहीं शमशेर उनको प्रिय रहे हैं या उन्होंने किसी और कारण से अपने ब्लॉग का शीर्षक ये चुना है।  पहले मानव कौल की किताब आई बहुत दूर कितना दूर होता है। अब उनकी नई किताब आ गई है, टूटी हुई बिखरी हुई। ये एक उपन्यास है। वैसे मानव कौल के एक उपन्यास का शीर्षक तितली है। जयशंकर प्रसाद जी के दूसरे उपन्यास का शीर्षक भी तितली था। ब्रोकन ...

लड़की, जिसकी मैंने हत्या की

उसका नाम चेन्नमा था. उसके माता पिता ने उसे बसवी बना कर छोड़ दिया था. बसवी माने भगवान के नाम पर पुरुषों की सेवा के लिए जीवन का समर्पण. चेनम्मा के माता पिता जमींदार ब्राह्मण थे. सात-आठ साल पहले वह बीमार हो गयी तो उन्होंने अपने कुल देवता से आग्रह किया था कि वे इस अबोध बालिका को भला चंगा कर दें तो वे उसे बसवी बना देंगे. ऐसा ही हुआ. फिर उस कुलीन ब्राह्मण के घर जब कोई मेहमान आता तो उसकी सेवा करना बसवी का सौभाग्य होता. इससे ईश्वर प्रसन्न हो जाते थे. नागवल्ली गाँव के ब्राह्मण करियप्पा के घर जब मैं पहुंचा तब मैंने उसे पहली बार देखा था. उस लड़की के बारे में बहुत संक्षेप में बताता हूँ कि उसका रंग गेंहुआ था. मुख देखने में सुंदर. भरी जवानी में गदराया हुआ शरीर. जब भी मैं देखता उसके होठों पर एक स्वाभाविक मुस्कान पाता. आँखों में बचपन की अल्हड़ता की चमक बाकी थी. दिन भर घूम फिर लेने के बाद रात के भोजन के पश्चात वह कमरे में आई और उसने मद्धम रौशनी वाली लालटेन की लौ को और कम कर दिया. वह बिस्तर पर मेरे पास आकार बैठ गयी. मैंने थूक निगलते हुए कहा ये गलत है. वह निर्दोष और नजदीक चली आई. फिर उसी न...