ढलते हुए दिन की किनारी पर
चलते हुए मुसाफ़िर के
रुखसारों को चूमकर
आहिस्ता से हवा ठहर जाती है।
सुबह सीली थी
दोपहर गरम ठहरी
शाम के बीतने के बाद
रात के पहले पहर
कोई सूखी पत्ती
ज़मीं पर बिखर जाती है।
याद ही याद है
कोई हल भी नहीं.
सवालों पे लगे पैबंदों की उधड़ी सिलाई से
झांक एक दूर बीते दिनों तक.
जब से देखा था उसे, जब से उसे खोया है
जब से भूले थे उसे जब से यादों में बसाया है.
कुछ नहीं कर रहा। बस ऐसे ही बैठा हूँ। कोई वजह नहीं सो जाने की। कोई मौका नहीं है जागने का। प्याला भी रखा है और सुराही भी है। नमक लगे कुछ दाने भी रखे हैं। मगर क्यों?
इसलिए ऐसे ही बैठा हूँ।