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Showing posts from August, 2018

कुछ बनाने का वहम

अब थकान ने हमारे भीतर स्थायी घर कर लिया है. हम इतना थक जाते हैं कि बैठकर आराम करने की बात से हमारा विश्वास उठ जाता है। हम खड़े हुए, चलते हुए, काम करते सोचते हैं कि ये सब क्या है? हम लम्बी सांस लेना भूल जाते हैं। हम अपने लिए चाय-कहवा बनाना याद नहीं रख पाते। हम मान लेते हैं कि अब कुछ ठीक न होगा। रात भर सोकर सुबह जागते हैं तो बदन में अधिक दर्द पाते हैं। आंखें बुझी-बुझी सी लगती हैं। बहुत देर बाद शरीर साथ देने लगता है। इसका एक कारण हो सकता है मस्तिष्क में भरा हुआ अटाला। बिछड़े साथी, टूटे सम्बन्ध, कटु अनुभव, असहज स्थितियां, उपेक्षा के क्षण, अपमान के कारक और भी ऐसी सब स्मृतियां हम अपने मस्तिष्क में भरे रखते हैं। मस्तिष्क एक कूड़ेदान बना रहता है। उसमें से एक भी बात मिटाने के लिए अगर कोई हमसे कहे तो हम तुरंत प्रतिक्रिया करते हैं। "अरे उसे कैसे भुला दूँ। तुम्हारे साथ बीता होता तो तुमको समझ आता। भाई किसी का विश्वास टूटना कैसा होता है. खरी कमाई का लुट जाना क्या होता है, अपना सौंपा हुआ जीवन व्यर्थ जाने की कीमत क्या होती है. काश तुम समझ सकते" इस तरह हम अपने जीवन की सबसे बुरी, अनुपयो...

मेटाथिसियो फोबिया - जड़प्रिय मन

गाड़ी के चलते ही आपका जी ख़राब होने लगता है उल्टियाँ आने लगती हैं? तो कोई खास बात नहीं है. आप हठी व्यक्ति हैं. नई चीज़ों, लोगों, सम्बन्धों, जगहों से डरते हैं. आपको लगता है कि जो जमा जमाया है उसमें कोई बदलाव नहीं आना चाहिए. मोशन सिकनेस केवल चलते वाहन से होने समस्या नहीं है. ये जड़ चीज़ों के प्रति भी होती है. मेरी माँ ने जो चीज़ जहाँ रख दी है वहां से कोई हिला दे तो वे महाविस्फोट के नज़दीक पहुँच जाती हैं. घर में कभी भी धमाका हो सकता है. अधिकतर धमाका पेड़ बचाओ बाबा वाले मौन व्रत की तरह अनवरत चलता है, कभी गाँधी जी के नमक कानून तोड़ो की पदयात्रा की तरह घर से बाहर गली में बैठ जाने जैसा होता है. हालाँकि वे चीज़ों की बदली गयी जगह को कम ही बर्दाश्त करती हैं और उनको वापस उसी जगह ले आती हैं. इस क्रिया में एक चकाचौंध करने देने वाले प्रकाश का डरावना प्रस्फुटन होता है जो पूरे घर को अपने प्रभाव में ले लेता है. इसलिए मैं या आभा या हम दोनों जब भी घर में किसी वस्तु, सुविधा अथवा चर्या में बदलाव चाहते हैं तो गम्भीर विमर्श होता है. अधिकतर विमर्श का परिणाम होता है "जाने दो, कौन टेंशन ले....

कुछ देर के लिए

हवा चलने से रेत पर नई अनछुई सलवटें बन रही थी. मन जागती आँख के स्वप्न का पीछा करते थककर ठहर गया तो अचानक ख़याल आया कि सोच समझ कर दिन खर्च करना. कुछ रातें भी बचाए रखना. होंठ हँसते हैं. किसके लिए. क्या करोगे बचाकर? खाली कासे से हवा की आवाज़ आती है "क्या कोई कुछ बचा सकता है?"  चारपाई पर बैठे हुए बालू रेत पर अंगूठे से जाने क्या लिखता हूँ. साँझ डूबने को आई कि पश्चिम से आती हवा रुक हई. उत्तर का आकाश गहरा हो चला. फिर भी यकीन नहीं होता. इसलिए कि रेगिस्तान के लिए बारिश एक अप्रत्याशित गीत है. जैसे कभी-कभी ये सोचना कि जीवन बहुत हल्का हो गया है. हम हवा में फाहों की तरह उड़ रहे हैं या हम किसी कंधे पर एक टूटे पंख की तरह उतर गए हैं. कुछ देर के लिए...