अब थकान ने हमारे भीतर स्थायी घर कर लिया है. हम इतना थक जाते हैं कि बैठकर आराम करने की बात से हमारा विश्वास उठ जाता है। हम खड़े हुए, चलते हुए, काम करते सोचते हैं कि ये सब क्या है? हम लम्बी सांस लेना भूल जाते हैं। हम अपने लिए चाय-कहवा बनाना याद नहीं रख पाते। हम मान लेते हैं कि अब कुछ ठीक न होगा। रात भर सोकर सुबह जागते हैं तो बदन में अधिक दर्द पाते हैं। आंखें बुझी-बुझी सी लगती हैं। बहुत देर बाद शरीर साथ देने लगता है। इसका एक कारण हो सकता है मस्तिष्क में भरा हुआ अटाला। बिछड़े साथी, टूटे सम्बन्ध, कटु अनुभव, असहज स्थितियां, उपेक्षा के क्षण, अपमान के कारक और भी ऐसी सब स्मृतियां हम अपने मस्तिष्क में भरे रखते हैं। मस्तिष्क एक कूड़ेदान बना रहता है। उसमें से एक भी बात मिटाने के लिए अगर कोई हमसे कहे तो हम तुरंत प्रतिक्रिया करते हैं। "अरे उसे कैसे भुला दूँ। तुम्हारे साथ बीता होता तो तुमको समझ आता। भाई किसी का विश्वास टूटना कैसा होता है. खरी कमाई का लुट जाना क्या होता है, अपना सौंपा हुआ जीवन व्यर्थ जाने की कीमत क्या होती है. काश तुम समझ सकते" इस तरह हम अपने जीवन की सबसे बुरी, अनुपयो...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]