Skip to main content

मेटाथिसियो फोबिया - जड़प्रिय मन



गाड़ी के चलते ही आपका जी ख़राब होने लगता है उल्टियाँ आने लगती हैं? तो कोई खास बात नहीं है. आप हठी व्यक्ति हैं. नई चीज़ों, लोगों, सम्बन्धों, जगहों से डरते हैं. आपको लगता है कि जो जमा जमाया है उसमें कोई बदलाव नहीं आना चाहिए. मोशन सिकनेस केवल चलते वाहन से होने समस्या नहीं है. ये जड़ चीज़ों के प्रति भी होती है.

मेरी माँ ने जो चीज़ जहाँ रख दी है वहां से कोई हिला दे तो वे महाविस्फोट के नज़दीक पहुँच जाती हैं. घर में कभी भी धमाका हो सकता है. अधिकतर धमाका पेड़ बचाओ बाबा वाले मौन व्रत की तरह अनवरत चलता है, कभी गाँधी जी के नमक कानून तोड़ो की पदयात्रा की तरह घर से बाहर गली में बैठ जाने जैसा होता है. हालाँकि वे चीज़ों की बदली गयी जगह को कम ही बर्दाश्त करती हैं और उनको वापस उसी जगह ले आती हैं. इस क्रिया में एक चकाचौंध करने देने वाले प्रकाश का डरावना प्रस्फुटन होता है जो पूरे घर को अपने प्रभाव में ले लेता है.

इसलिए मैं या आभा या हम दोनों जब भी घर में किसी वस्तु, सुविधा अथवा चर्या में बदलाव चाहते हैं तो गम्भीर विमर्श होता है. अधिकतर विमर्श का परिणाम होता है "जाने दो, कौन टेंशन ले." कभी दीर्घकालीन आवश्यकता को ध्यान में रखकर हिम्मत जुटाते हैं और कार्य को संपन्न कर देते हैं. उसके बाद जो होता है, वह होता है.

बहुत बरस पीछे ऐसा था कि घर में झाड़ू फ्रीज़ के नीचे रखा रहता था. माँ को वह जगह ठीक लगती थी. एक बार आभा ने कहा "रसोई में क्या झाड़ू रखना. उसे कहीं एकांत में होना चाहिए. जैसे पोछा की बाल्टी, डंडे वाला पोछा, झाड़ू और सूपड़ी एक जगह रखे जाएँ. आसानी रहती हैं." मैंने कहा- "तुम पिटवाओगी. बाल्टी सीढियों के आगे रहेगी. पोछा सीढियों के ऊपर आधा लटका आधा टंगा रहेगा. सुपड़ी अख़बारों पर रखी जाएगी और झाडू वहीँ रहेगा. प्लीज़ इसमें कोई बदलाव नहीं होगा." आभा मुस्कुराई. आज बरसों बाद झाड़ू की जगह पता नहीं कैसे बदल गयी है मगर बाक़ी चीज़ें उसी क्रम में उन्हीं जगहों पर रखी होती हैं.

एक बूढी माँ के पास अधिकार जताने को क्या है? यहीं न कि जो काम वे बरसों से करती आई हैं. जिस घर को उन्होंने अपना जीवन देकर बनाया है उसे अपना जान सकें. अपने बनाये घर की तरतीब पर ही ज़ोर आजमा कर वे हमें जता सकती हैं कि ये मैंने बनाया है और इसमें हस्तक्षेप न करो. उनके रूठने के आन्दोलन असल में चीज़ों की जगह बदल जाने को लेकर नहीं है. वे जताना चाहती है कि बेटा अब तुम्हारी माँ से गरज खत्म हो गयी है. इसलिए मैं अपनी चीज़ों के साथ हूँ. मेरा जी इन्हीं पुरानी चीज़ों की तरतीब में लगता है तो टाइम पास हो जाता है.

अभी कुछ दिवस पूर्व मैंने ऑफिस के कुलीग्स को रात के भोजन पर बुला लिया. सोचा कि उमस भरे दिन हैं. कमरे बहुत सीले और गरम हैं एसी भी इफेक्टिव नहीं है तो बाहर बैठ जायेंगे. हमने खुले हिस्से में सोफा, चारपाई, टी टेबल और कुर्सियां लगा लीं. हम काफी लोग थे. अच्छी पार्टी रही. माँ ही सबकी मेजबान थी. उन्होंने ही अपने हाथ से रोटियां सेकी. आभा और मैंने खाना खिलाया. हम अब भी थोड़े रेगिस्तानी बचे हुए हैं कि लाख चाहकर भी मेहमानों के साथ खाना नहीं खा पाते. इसलिए सबको खिलाकर बाद में खाना खाते हैं. हमने खाना खाया और सो गए.

सुबह माँ ने कहा "बेटा राते मने नींद ही कोई आई नी. ऐ दोई सोफा कमरे में हा कोनी. हूँ घड़ी घड़ी जागूं न सोचूं के मरो रे कमरों कैड़ो खाली होयो. सुनियाड़ होगी." मैं माँ को देखता रहा. मन में सोचा कि बुजर्गों का जी कैसा हो जाता है. उनको अपने बच्चों के साथ-साथ चीज़ों से असीम आत्मीयता हो जाती है. वे किसी सोफा के कमरे में न होने से नींद तक नहीं ले पाते.

मैं आभा से कहता हूँ कि देखो बुजर्ग कैसे होते जाते हैं न? हम उनको कोसते हैं कि वे चीज़ें सलीके से नहीं रखते. वे क्या कर सकते हैं? असल में चीज़ें, सामान, घर सबकुछ एकमेव हो गया है. उनको कुछ हो जाने के डर से वे घबरा जाते हैं. ये सब उन्होंने बहुत कठिनाई से बनाया है इसलिए इनके बिना चैन नहीं आता.

अच्छा ये केवल बुजर्गों की बात नहीं है. हम हर उम्र के लोगों में होता है.

आपने देखा होगा कि नए लोग मिलते समय एक असहज अकड़ लिए होते हैं. आपको लगता है कि वे आपसे मिलना चाहते किन्तु किसी विशेष प्रदर्शन में भी खोये हैं. प्रदर्शन माने आपको ये बोध कराने का प्रयास करना कि ये अचानक हुआ है, मेरा आपसे मिलने का कोई प्लान न था. ये जताना कि मुझे अक्सर किसी से मिलना पसंद नहीं आता. कभी-कभी ये भाव भी पढ़ा जा सकता है कि आप हैं तो अपनी जगह होंगे मगर मैं भी कम नहीं हूँ.

इसे मैं मेटाथिसियो फोबिया समझता हूँ.

फोबिया का साधारण अर्थ भय है और मेटाथिसियो से अभिप्राय है बदलाव. किसी भी प्रकार के बदलाव से डरना. तो नए या पहली बार मिलने वाले लोग भयभीत हैं. वे नए के प्रति आकर्षित तो हैं. उनमें नए की चाहना तो है लेकिन ख़ुद को खो देने से डरते हैं. कि हमसे मिलकर वे वैसे नहीं रहेंगे जैसे पहले थे. हमारे बीच एक नया सम्बन्ध उग आएगा, परिचय का सम्बन्ध.

मुझसे मिलकर कई लोग आगे निकल जाते हैं. मैं उनको जाते हुए देखता हूँ. पाता हूँ कि वे थोड़ा आगे जाकर किसी बहाने से रुक गए हैं. अक्सर वे मुड़कर भी देखते हैं. तब मैं किसी बहाने से उनतक चला जाता हूँ. मैंने पाया कि मेरे सबसे अच्छे दोस्त वे ही हैं और वे मुझसे बिना शर्त बहुत सारा प्यार करते हैं.

क्या हुआ था उनको? क्यों रुके झिझके और आगे बढ़ गए? आप सोचना.

बुजर्ग किस बात से ख़ुश होंगे और किस बात से खफ़ा समझना नामुमकिन है। हम जयपुर में थे. सबसे छोटा भाई आया. उसने कहा- "माँ आपके हाथ की बाजरे की रोटी" माँ ने कहा- "बेटा मिट्टी का तवा होता तो मैं गैस पर भी बना देती." ये सुनने के बाद मैं और आभा पास के गाँव तक गए. वहां के बाज़ार में मिट्टी का तवा खोजा. उसे लेकर आये. रात को बाजरा की रोटियों की महक से फ्लैट भर गया. बच्चों के कोलाहल के बीच घी की ख़ुशबू बालकनियों तक जा पहुंची. माँ जो थकी-थकी चुप-चुप सी उदास रहती वह रसोई में उर्जा से भरी काम करती रही. उस रात माँ गहरी नींद सोई.

अगली शाम सब खुसर-पुसर करते हैं

अच्छा ! माँ चाहती क्या हैं? घर सब उनके हैं. माँ के लिए काम करने वाले लोग हैं. वे जो चाहें सो करें. उनको कौन रोकता है. वे ख़ुश क्यों नहीं रहती? मैं कहता हूँ- "पता नहीं" रसोई के बाएं कपबोर्ड से एक चौड़ा ग्लास लेता हूँ. आइस्क्यूब का बंद डिब्बा उठाता हूँ और बालकनी में आकर बैठ जाता हूँ.

इधर माँ हवाई यात्रा करके आई. "अरे मनुड़े बैठा दी. सा निकल जे आल तेरी माँ रो" माने छोटे भाई मनोज का नाम लेते हुए कहती है कि उसने मुझे बिठा दिया. मर ही जाती उसकी माँ" मैंने पूछा "उलटी दूजी?" वे कहती हैं. "ना रे एक हिचके में उपर आधे पूंण घंटे में दूजे हिचके में नीचे" मैं कहता हूँ तो हवाई जहाज ले लें तो कितना अच्छा रहे. माँ से इस तरह बातें करते रहो तो वे छोटे बच्चे की तरह ख़ुश रहती हैं।

माँ कार में हमेशा आगे वाली सीट पर बैठती है. कहती है इससे उलटी नहीं होती. किसी ने कहा सीट पर अख़बार बिछा लो तो वे अब अख़बार भी नहीं भूलती. पोते पोतियाँ मजाक बनाते हैं. माँ अखबार की कार बना दे? बहुएं इशारों और संकेतों में परिहास करती हैं "माँ को देखो." किसी भी यात्रा से पहले माँ कार में बैठ रही होती है तब ये सब चल रहा होता है. मैं कहता हूँ. "थोरीं माँ गी परी तो रोवो घणा. हमें खिल्खिलिया करो हो"

माँ मेरी ओर देखकर गर्दन हाँ में हिलाती है. जैसे मेरी बात की पुष्टि कर रही हो.

माँ की डिबड़ी माँ के आले में उसी जगह रहने दो। तुम जाओ और अपनी चीज़ें अपनी जगहें ख़ुद बनाओ। समझे। आये बड़े फोबिया वाले।

तस्वीर माँ और मनोज की है. १२ अगस्त २०१८ की सुबह घर में

Popular posts from this blog

स्वर्ग से निष्कासित

शैतान प्रतिनायक है, एंटी हीरो।  सनातनी कथाओं से लेकर पश्चिमी की धार्मिक कथाओं और कालांतर में श्रेष्ठ साहित्य कही जाने वाली रचनाओं में अमर है। उसकी अमरता सामाजिक निषेधों की असफलता के कारण है।  व्यक्ति के जीवन को उसकी इच्छाओं का दमन करके एक सांचे में फिट करने का काम अप्राकृतिक है। मन और उसकी चाहना प्राकृतिक है। इस पर पहरा बिठाने के सामाजिक आदेश कृत्रिम हैं। जो कुछ भी प्रकृति के विरुद्ध है, उसका नष्ट होना अवश्यंभावी है।  यही शैतान का प्राणतत्व है।  जॉन मिल्टन के पैराडाइज़ लॉस्ट और ज्योफ्री चौसर की द कैंटरबरी टेल्स से लेकर उन सभी कथाओं में शैतान है, जो स्वर्ग और नरक की अवधारणा को कहते हैं।  शैतान अच्छा नहीं था इसलिए उसे स्वर्ग से पृथ्वी की ओर धकेल दिया गया। इस से इतना तय हुआ कि पृथ्वी स्वर्ग से निम्न स्थान था। वह पृथ्वी जिसके लोगों ने स्वर्ग की कल्पना की थी। स्वर्ग जिसने तय किया कि पृथ्वी शैतानों के रहने के लिए है। अन्यथा शैतान को किसी और ग्रह की ओर धकेल दिया जाता। या फिर स्वर्ग के अधिकारी पृथ्वी वासियों को दंडित करना चाहते थे कि आखिर उन्होंने स्वर्ग की कल्पना ही क्य...

टूटी हुई बिखरी हुई

हाउ फार इज फार और ब्रोकन एंड स्पिल्ड आउट दोनों प्राचीन कहन हैं। पहली दार्शनिकों और तर्क करने वालों को जितनी प्रिय है, उतनी ही कवियों और कथाकारों को भाती रही है। दूसरी कहन नष्ट हो चुकने के बाद बचे रहे भाव या अनुभूति को कहती है।  टूटी हुई बिखरी हुई शमशेर बहादुर सिंह जी की प्रसिद्ध कविता है। शमशेर बहादुर सिंह उर्दू और फारसी के विद्यार्थी थे आगे चलकर उन्होंने हिंदी पढ़ी थी। प्रगतिशील कविता के स्तंभ माने जाते हैं। उनकी छंदमुक्त कविता में मारक बिंब उपस्थित रहते हैं। प्रेम की कविता द्वारा अभिव्यक्ति में उनका सानी कोई नहीं है। कि वे अपनी विशिष्ट, सूक्ष्म रचनाधर्मिता से कम शब्दों में समूची बात समेट देते हैं।  इसी शीर्षक से इरफ़ान जी का ब्लॉग भी है। पता नहीं शमशेर उनको प्रिय रहे हैं या उन्होंने किसी और कारण से अपने ब्लॉग का शीर्षक ये चुना है।  पहले मानव कौल की किताब आई बहुत दूर कितना दूर होता है। अब उनकी नई किताब आ गई है, टूटी हुई बिखरी हुई। ये एक उपन्यास है। वैसे मानव कौल के एक उपन्यास का शीर्षक तितली है। जयशंकर प्रसाद जी के दूसरे उपन्यास का शीर्षक भी तितली था। ब्रोकन ...

लड़की, जिसकी मैंने हत्या की

उसका नाम चेन्नमा था. उसके माता पिता ने उसे बसवी बना कर छोड़ दिया था. बसवी माने भगवान के नाम पर पुरुषों की सेवा के लिए जीवन का समर्पण. चेनम्मा के माता पिता जमींदार ब्राह्मण थे. सात-आठ साल पहले वह बीमार हो गयी तो उन्होंने अपने कुल देवता से आग्रह किया था कि वे इस अबोध बालिका को भला चंगा कर दें तो वे उसे बसवी बना देंगे. ऐसा ही हुआ. फिर उस कुलीन ब्राह्मण के घर जब कोई मेहमान आता तो उसकी सेवा करना बसवी का सौभाग्य होता. इससे ईश्वर प्रसन्न हो जाते थे. नागवल्ली गाँव के ब्राह्मण करियप्पा के घर जब मैं पहुंचा तब मैंने उसे पहली बार देखा था. उस लड़की के बारे में बहुत संक्षेप में बताता हूँ कि उसका रंग गेंहुआ था. मुख देखने में सुंदर. भरी जवानी में गदराया हुआ शरीर. जब भी मैं देखता उसके होठों पर एक स्वाभाविक मुस्कान पाता. आँखों में बचपन की अल्हड़ता की चमक बाकी थी. दिन भर घूम फिर लेने के बाद रात के भोजन के पश्चात वह कमरे में आई और उसने मद्धम रौशनी वाली लालटेन की लौ को और कम कर दिया. वह बिस्तर पर मेरे पास आकार बैठ गयी. मैंने थूक निगलते हुए कहा ये गलत है. वह निर्दोष और नजदीक चली आई. फिर उसी न...