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कुछ बनाने का वहम

अब थकान ने हमारे भीतर स्थायी घर कर लिया है. हम इतना थक जाते हैं कि बैठकर आराम करने की बात से हमारा विश्वास उठ जाता है। हम खड़े हुए, चलते हुए, काम करते सोचते हैं कि ये सब क्या है? हम लम्बी सांस लेना भूल जाते हैं। हम अपने लिए चाय-कहवा बनाना याद नहीं रख पाते। हम मान लेते हैं कि अब कुछ ठीक न होगा। रात भर सोकर सुबह जागते हैं तो बदन में अधिक दर्द पाते हैं। आंखें बुझी-बुझी सी लगती हैं। बहुत देर बाद शरीर साथ देने लगता है।
इसका एक कारण हो सकता है मस्तिष्क में भरा हुआ अटाला।

बिछड़े साथी, टूटे सम्बन्ध, कटु अनुभव, असहज स्थितियां, उपेक्षा के क्षण, अपमान के कारक और भी ऐसी सब स्मृतियां हम अपने मस्तिष्क में भरे रखते हैं। मस्तिष्क एक कूड़ेदान बना रहता है। उसमें से एक भी बात मिटाने के लिए अगर कोई हमसे कहे तो हम तुरंत प्रतिक्रिया करते हैं। "अरे उसे कैसे भुला दूँ। तुम्हारे साथ बीता होता तो तुमको समझ आता। भाई किसी का विश्वास टूटना कैसा होता है. खरी कमाई का लुट जाना क्या होता है, अपना सौंपा हुआ जीवन व्यर्थ जाने की कीमत क्या होती है. काश तुम समझ सकते" इस तरह हम अपने जीवन की सबसे बुरी, अनुपयोगी और मन को नष्ट करने वाली स्मृतियों पर नाग की तरह कुंडली मार कर बैठ जाते हैं।

लुटेरों के घर कोठियों जैसे होते हैं. इसलिए कि वे ख़ुद लुटेरे हैं और उनको किसी के हाथों लुट जाने का भय नहीं है. गरीब और लाचार लोगों के घरों की दीवारें एक दूजे से जुड़ी रहती हैं. लगभग हर पड़ोसी दूजे के घर के हाल को कानों से देख सकता है. इसलिए कि लूट, चोरी, हमला, बदनीयती से प्रवेश जैसी घटनाओं पर चौकसी रहे और मिलकर मुकाबला किया जा सके. तो हम गरीबों के घरों के आगे पीछे खाली जगहें नहीं होती हैं. पिछले दो दशकों में हमने घर के आगे दस एक फ़ीट के लॉन बनाने शुरू किये हैं. वे भी अक्सर स्कूटर, मोटर सायकिल और ख़राब हुए घरेलू सामान रखने के काम आते हैं. कम ओ बेश यही हाल हमारे मस्तिष्क का भी है. अगर हम उसमें कहीं जगह बना पा रहे हैं तो उसे भी भरने के लिए हमारा अपना सामान तैयार पड़ा है.

घर की सफाई में रेलवे ट्रेक पर चेतावनी के लिए बिछाए जाने वाले पटाखे मिले. वे ऐसे पटाखे हैं कि जिनको रेल की पटरी पर बाँध दिया जाता है. इंजन का पहिया जब उस पर आता है तो एक धमाका होता है. इससे ड्राइवर को संकेत मिलता है कि आगे कुछ ख़तरा है और वह गाड़ी को रोक देता है. ऐसे पटाखे रेलवे में लम्बे समय तक काम लिए जाते रहे हैं. ये पटाखे नागरिक सुरक्षा के स्वयं सेवकों को भी दिए जाते रहे हैं. रेलवे भी युद्ध की स्थिति में देश के नागरिकों का प्रशिक्षण करता है. उनको क्या किया जाना और क्या नहीं किया जाना बताता रहता है. खैर ! मैंने माँ से पूछा कि ये क्या हैं? वे बोली- "पता नहीं. बरसों से पड़े हुए हैं." मैंने उनको बताया कि ये क्या वस्तु हैं और इसका क्या उपयोग हैं. माँ तुरंत पैंसठ की लड़ाई को याद करने करने लगीं फिर कहा इकहत्तर की लड़ाई के समय तेरे पापा ने कैसे एक बचने की जगह बनाई थी और पड़ोसियों ने भी कैसे खड्डे खोदे. जब हवाई जहाज आता तो सब उन खड्डों में छिप जाते.

बात पूरी हुई तब मैंने कहा कि इनका क्या करना है? वे बोली- "तू बता?" मैंने कहा माँ ये अब एक्सपायर हो चुके हैं. चालीस-पचास साल पुराने हैं. इनका कोई उपयोग नहीं. माँ ने कहा- "हे तो फूटरा" अब मैं माँ को देखूं और माँ पटाखों को देखे. बस इसी तरह कुछ वस्तुएं हमारे मस्तिष्क में भी बची हैं. वे कब की अवधिपार हो चुकी हैं. हम अजाने ही उनकी देखभाल और सुरक्षा का बोझ लिए जी रहे हैं.

तो वह जो लुटेरों का घर होता है. जिसमें आगे पीछे खुली जगहें होती हैं. उसमें वे पिछले खुले भाग को बैकयार्ड कहते हैं. हमारे घर में आगे, दायें और बाएं कोई खुली जगह नहीं है. पीछे एक ज़मीन का टुकड़ा है जिसे बैकयार्ड कहकर थोड़ा बहुत लुटेरे हो सकने का गर्व कर लेते हैं. उस टुकड़े पर चालीस-एक बरसों से घर का तमाम अनुपयोगी सामान पड़ा रहा है. किसी अनुपयोगी वस्तु को कबाड़ी को देने का मन नहीं होता. इसलिए कि याद आता कितना धन खर्च करके इसे लाया गया था और अब कितना सा मिल रहा है. ये कोई याद नहीं करना चाहता कि आवश्यकता का मोल था. आवश्यकता के योग्य न रहे तो अब कोई ग्राहक नहीं. कोई मोल नहीं.

इसी ज़मीन पर एक नीम का पेड़ था. वह सूख गया. उस पेड़ पर बेहया की बेल चढ़ गयी. बेल ने सूखी टहनियों पर एक छतरी तान दी. अब पक्षियों को आनंद आने लगा. वे उस छतरी के नीचे अपने घर बनाने लगे. लड़ाई भी वहीं करते और पंचायती भी. बुलबुल, गौरैया, कमेड़ी और सन बर्ड ये चार तरह की चिड़ियाएँ एक साथ रहती थी. एक और काले रंग की बड़ी चिड़िया भी कभी आती थी पर वह केवल पर्यटन भर होता था. इस दृश्य से मेरा मोह हो गया. मैं सुबह जागते ही बैकयार्ड में आता. हम वहीं बैठकर चाय पीते और कलरव सुनते. एक शाम अंधड़ आया. सूखा नीम का पेड़ धराशायी हो गया. बेहया की बेल में बने घोंसले धरती पर आ गिरे. मन दुखी हुआ. पंछी उड़ गये.

उस दिन हम चाय पी रहे थे. मैंने आभा से कहा- "हमें स्वार्थी नहीं होना चाहिए. सबको जीने के लिए जगह बराबर है" आभा ने कहा- "पक्षी सचमुच कुछ नहीं मांगते. उनको देखकर प्रसन्नता होती है." हमने तय किया कि सूखे पेड़ से भी अच्छी एक छाँव बनाते हैं. उस पर बेहया, गिलोय, मधुमालती जैसी बेल चढ़ जाने देते हैं. उसके नीचे पक्षियों के लिए स्वभाविक जगह बन जाने लायक हाल बना देते हैं. मैंने मिस्त्री से कहा कि ऐसा शेड बनाना है. उसने कहा- "ये क्या काम आएगा. पचास हज़ार रूपये लग जायेंगे. छाया भी नहीं होगी. आप टीन डलवा लो" बात नहीं बनी. मित्र हेमंत से चर्चा की. तब एक मिस्त्री मिला. उसने वैसी शेड बना दी जिस पर लताएँ चढ़ सकें और वे लम्बे समय तक रहें.

मनोज का बाड़मेर आना हुआ तो उसे शेड बहुत पसंद आया. शेड पर चढती बेलों और पक्षियों के लिए बनती जगह को देखकर मनोज ने कहा- "आज का आदमी दुनिया में अपने सिवा किसी को रहने ही नहीं देना चाहता है. वह सब पक्षियों और जानवरों को मारकर खाता जा रहा है. ऐसी भूख इस दुनिया में और किसी प्राणी में नहीं दिखाई देती." हम थोड़ी देर शेड के नीचे घूमते रहे और विचार किया कि कैसे मृदा पात्र टाँगे जो पक्षियों को स्वभाविक लगें या किस तरह के छोटे आले बना दें जहाँ वे अपने घर बसा सकें. लेकिन दो तीन विचार आकर रह गए. मनोज ने कहा- "आदमी अपने लिए कुछ भी बनाने को किसी का कुछ भी उजाड़ देता है. विध्वंसक सोच वाला ये प्राणी इस धरती के लिए अच्छा नहीं है. लेकिन हमने ये बहुत मामूली सा किन्तु अच्छा काम किया है."

बैकयार्ड की सफाई आरम्भ की. जैसा होता है वही हुआ. माँ आशंका से देखने लगी. ये बच्चे जाने कितनी चीज़ें बेकार ही कबाड़ी को दे देंगे या उनको फेंक आयंगे. वे कहीं से झांकती और चुप वापस मुड़ जाती. हमारा काम चलता रहा. अंततः माँ आई. पूछा यहाँ क्या होगा? मैंने कहा- "रामजी री चिड़िया अर रामजी रो खेत" माँ मुस्कुरा कर देखने लगी. उन्होंने भी साथ देना शुरू किया. अब कुछ महीने की मेहनत के बाद तीन चौथाई जगह सुंदर स्वच्छ और कचरा मुक्त हो गयी है. शेड पर बेलें चढने लगीं हैं.

हम बहुत सारे पौधे लाये. जिसने दिए उसको भी कम पता था कि किसमें क्या कैसा खिलेगा. लेकिन पौधे हैं तो हरियाली होगी. आँखें सुख पाएंगी. इसी तरह कुछ महीने बीते हैं कि कल एक पौधे से ट्यूब जैसा लम्बा और आगे से बेहद सुंदर रंग वाला फूल खिला. उसे देखकर सबको प्रसन्नता हुई. शाम की चाय पीते समय मैंने कहा- "ये बाड़ा हमारा दिमाग है. पहले इसमें कचरा भरा था. अनुपयोगी चीज़ें भरी पड़ी थी. इसमें बैठना अच्छा नहीं लगता था. लेकिन अब ये इतना अच्छा है कि हम अपने आप यहाँ चले आते हैं." माँ ने सर हिलाया और जूही, मोगरा सहित बहुत सी बेलों पर दृष्टि डाली. वे जड़ पकड़ने लगी हैं. उनमें कुछ फूल खिले हैं.

अगर इसी तरह हम अपने दिमाग से कचरा हटा सकें. बुरी, कड़वी और अनचाही स्मृतियाँ मिटा दें. सम्भावनाओं की नई पौध रोप सकें. तो... ?

आप अगर चेतना की ओर बढना शुरू करें. दिमाग में रखी वस्तुओं को देखें. उनकी उपयोगिता समझें. अनुपयोगी को बाहर कर दें. बुरे अनुभव मिटा दें. स्वयं से कहें कि आगे बढो. इस बोझ को हटाओगे तो और आगे बढोगे. तीव्रता से बढोगे. बच्चों की चिंता न करें कि उनका भविष्य अभी दूर है. हम अपने भविष्य तक कभी नहीं पहुँच पाएंगे कि वह सदा एक कदम आगे चलता है. इसलिए इस समय बच्चों से प्यार कीजिये. अच्छी बातें सिखाइए. आगे बढने को प्रेरित कीजिये. जो बनना होगा, वे बनेंगे. आग्रह परे करके अपने काम को शांति से करें. विश्वास करें कि शांत, सहज और सरल होने से, लालच मिटा देने से जीवन आसान और मीठा हो जाता है.

असल में आपको एक वहम ने घेर रखा है कि आप इस दुनिया में कुछ बना रहे हैं. जिस दिन आप इस दुनिया में कुछ बनाने की जगह जीने में लग जायेंगे. सबकुछ बदल जायेगा. अस्वस्थ होने के कारण आपने स्वयं जमा किये हुए हैं. उनको मस्तिष्क से हटाना शुरू करेंगे तो सुख भरी नींद आएगी और स्फूर्ति भरे जागेंगे.

ये सब लिखते हुए मैं सोचता हूँ कि अनेकानेक पक्षी आँगन में उतर आये हैं. उनके कलरव में राग यमन का आभास हो रहा है. मैं एक मीठी नींद में खोया जा रहा हूँ. परमानन्द मेरे पास खड़ा है और मैंने नन्हे बालक की तरह उसकी अंगुली पकड़ ली है. 
* * *

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