हवा चलने से रेत पर नई अनछुई सलवटें बन रही थी. मन जागती आँख के स्वप्न का पीछा करते थककर ठहर गया तो अचानक ख़याल आया कि सोच समझ कर दिन खर्च करना. कुछ रातें भी बचाए रखना. होंठ हँसते हैं. किसके लिए. क्या करोगे बचाकर? खाली कासे से हवा की आवाज़ आती है "क्या कोई कुछ बचा सकता है?"
चारपाई पर बैठे हुए बालू रेत पर अंगूठे से जाने क्या लिखता हूँ. साँझ डूबने को आई कि पश्चिम से आती हवा रुक हई. उत्तर का आकाश गहरा हो चला. फिर भी यकीन नहीं होता. इसलिए कि रेगिस्तान के लिए बारिश एक अप्रत्याशित गीत है. जैसे कभी-कभी ये सोचना कि जीवन बहुत हल्का हो गया है. हम हवा में फाहों की तरह उड़ रहे हैं या हम किसी कंधे पर एक टूटे पंख की तरह उतर गए हैं. कुछ देर के लिए...