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Showing posts from October, 2019

रंगीन पैबल्स

जीवन रंगीन पैबल्स के लुढ़कने का कोई खेल है। अनिगिनत रंग बिरंगे पैबल्स अनजाने-अनदेखे रास्ते पर लुढ़कते हुए टकराते हैं। साथ चलते है। बिछड़ते हैं। कोई रास्ते से बाहर उछल जाता है। कोई टूटता हुआ बढ़ता रहता है। अंततः हर पैबल रंगीन धुएं में बदल जाता है। इस खेल में हमारा सफ़र खत्म हो जाता है। कभी दफ़्तर से लौटकर, कॉलेज से आकर, दुकान से आकर लगता है कि कितना बोझिल है। इससे हम कब मुक्त होंगे। घर साफ करते, खाना पकाते, परिवार को आकार देते हुए एक मोड़ पर यह सब भी बोझिल होने लगता है। हताशा उगने लगती है। उस पल कभी सोचा है कि आज का हो गया। सो सके तो कल जागेंगे तब देखेंगे। इतना भर सोचते ही सब मुश्किलें यथावत होते हुए भी एक कदम पीछे छूट जाती है। कि क्या सचमुच कई बरसों में कुछ बनाने का लक्ष्य पक्का साधा जा सकेगा? नहीं, नहीं कभी नहीं। फिर क्या है? किस बात की चिंता। वह जो पार्टनर है, वे जो बच्चे हैं, वह जो काम है। इतना मत सोचो, ये सब अलग हैं। सब का अपना रास्ता है। सब रंगीन पैबल्स अपने ढब से आगे बढ़ेंगे। कौन कब कहाँ होगा कोई नहीं जानता। फिलहाल एक बार आराम से बैठ जाइए। आप ज़िंदा हैं, मशीन नही...

खुद के पास लौटते ही

छाँव के टुकड़े तले बैठ जाना सुख नहीं था। वह आराम था। काम से विराम। इसी बैठ जाने में जब तुमने देखा कि तुम बैठे हुए हो। तुम पर छाँव है। धूप पास खड़ी तुमको देख रही है। तुमने एक गहरी सांस ली। ये सब महसूस करते और देखते ही आराम सुख में बदल जाता है। चिंता बड़ी होती है। उसका लम्बा होना अधिक भारी होता है। अक्सर पांच, दस, पन्द्रह बरस तक आगे की लंबी चिंता। इसका क्या लाभ है। हम अगले क्षण कहाँ होंगे। सब कुछ अनिश्चित लेकिन चिंता स्थायी। चिंता के लंबे बरसों को पार करते ही चिंता किसी जादुई चीज़ की तरह रूप बदल कर कुछ और साल आगे कूद जाती है। उसे मिटाने के लिये फिर से पीछा शुरू हो जाता है। दिन भर तगारी उठाते। ठेला दौड़ाते। रिक्शा खींचते। बच्चों को पढ़ाते। वर्दी पहने धूप में खड़े हुए। दफ़्तर में फ़ाइलें दुरुस्त करते। आदेश देते हुए। आराम किया होगा मगर सुख को पाया। शायद नहीं। सुख तब होता जब काम के आराम में अपने आपको देखा जाता। अपने हाल पर एक नज़र डाली जाती। जैसे एक धावक अपने पसीने को देखता है। जैसे एक चिड़िया अपनी चोंच साफ करती है। धावक दौड़ लिया। अब वह दौड़ से बाहर खुद के पास है। चिड़िया ने भ...

माँ है

गिलहरी के दो छोटे बच्चे एक साथ दिखे। अचानक तीसरा दिखाई दिया। मैं उसे देखने लगा। मैंने अब तक तीन बच्चे एक साथ न देखे थे। मैं मुस्कुराया। उनके खाने लिए दालें, गेंहूँ और बीज रखे रहते हैं। ये गेहूँ और दाल बीनने के बीच बचे हुए या बचाये हुए होते हैं।फलों को खाने पर गुठलियां और बीज ऐसे रख दिये जाते हैं कि गिलहरियां इनको कुतर सके। गिलहरियां और चिड़ियाँ एक उदास चलचित्र में सजीवता भरती है। उनके उछलने, कूदने, दौड़ने, कुतरने और कलरव से हम कहीं खोये होने से बाहर आते हैं। हम पाते हैं कि जीवन चल रहा। नन्हे बच्चे जिज्ञासु होते हैं। वे पास चले आते हैं। थोड़ा झिझकते हैं फिर भाग जाते हैं। आलू पपड़ी इनको बहुत प्रिय है। मेरे बच्चे मशीनों से पैक होकर आई हुई खाते हैं। वे गिलहरियों के लिए शायद उतनी मज़ेदार भी न हों। थोड़ी मोटी हाथ से बनी आलू पपड़ी को कुतरने का स्वाद उनकी तन्मयता में पढ़ा जा सकता है। तीन बच्चों को देखते हुए मैं अचानक चिंतित हुआ। उनकी माँ नहीं दिख रही थी। जबकि सबसे पहले वही दिखा करती थी। मुझे एक और चिंता हुई तो मैं बाहर दरवाज़े की ओर देखने लगा। दरवाज़ा खोलकर माँ खड़ी हु...

चाहना

चाहना कोई काम थोड़े ही था कि किया या छोड़ दिया जाता। ये तो वनफूल की तरह खिली कोई बात थी। उसे देखा और देखते रह गए। वह दिखना बंद हुआ तो उसकी याद आने लगी। उस तक लौटने लगे तो खुश हुये। उससे मिल लिए तो सुकून आया। तुम वनफूल से थे, वो किसी खरगोश की तरह तुम्हारे रास्ते से गुज़रा होगा। इस में कुछ भी अच्छा या बुरा नहीं है। सबकुछ एक रोज़, एक लम्हे के लिए होता है। ज़रा ठहर कर सोचोगे तो पाओगे कि उस लम्हे का होना, होने से पहले था और होने के बाद भी वह है। मगर तुम केवल वही होना चाहते हो जिसमें पहली बार में बिंध गए थे। चाहना का भूत और भविष्य कुछ नहीं होता। इसे को न चाह कर बनाया जा सकता है न मिटाया। जाने दो। * * *