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खुद के पास लौटते ही



छाँव के टुकड़े तले बैठ जाना सुख नहीं था। वह आराम था। काम से विराम।

इसी बैठ जाने में जब तुमने देखा कि तुम बैठे हुए हो। तुम पर छाँव है। धूप पास खड़ी तुमको देख रही है। तुमने एक गहरी सांस ली। ये सब महसूस करते और देखते ही आराम सुख में बदल जाता है।

चिंता बड़ी होती है। उसका लम्बा होना अधिक भारी होता है। अक्सर पांच, दस, पन्द्रह बरस तक आगे की लंबी चिंता। इसका क्या लाभ है। हम अगले क्षण कहाँ होंगे। सब कुछ अनिश्चित लेकिन चिंता स्थायी।


चिंता के लंबे बरसों को पार करते ही चिंता किसी जादुई चीज़ की तरह रूप बदल कर कुछ और साल आगे कूद जाती है। उसे मिटाने के लिये फिर से पीछा शुरू हो जाता है।

दिन भर तगारी उठाते। ठेला दौड़ाते। रिक्शा खींचते। बच्चों को पढ़ाते। वर्दी पहने धूप में खड़े हुए। दफ़्तर में फ़ाइलें दुरुस्त करते। आदेश देते हुए। आराम किया होगा मगर सुख को पाया। शायद नहीं।

सुख तब होता जब काम के आराम में अपने आपको देखा जाता। अपने हाल पर एक नज़र डाली जाती। जैसे एक धावक अपने पसीने को देखता है। जैसे एक चिड़िया अपनी चोंच साफ करती है। धावक दौड़ लिया। अब वह दौड़ से बाहर खुद के पास है। चिड़िया ने भोजन जुटा लिया, अब वह अपने पास लौट आई है।

अपने लिए दौड़कर अपने पास लौट आना।

इस दुनिया में कागज़ी मुद्रा, कीमती धातुएं, भव्य आवास सब हो तो कितना अच्छा हो। फिर भी सुख तभी आएगा जब खुद के पास लौट आओगे। खुद के पास लौटते ही ये सब चीज़ें अपना मोल खो देंगी।

तुम बहुत थके हुए हो केसी आराम किया करो। ऐसा आराम कि जिसमें सुख चीन्ह सको।
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