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क्योंकि ऐसा ही है

ऐसा ही होता है।

सोचना है तो अभी की नवीन बात से मत सोचो। पीछे वहां तक झांको, जहां तक स्मृति साथ देती है। वहीं से आरम्भ करो। धीमे मद्धम अनगिनत चेहरे याद आएंगे। स्पष्ट होने लगेगा कि वे चेहरे न थे, मुखौटे थे।

उन मुखौटों के स्थिर मुंह से निकली बातें याद आते ही परिणाम भी याद आएंगे। उन बातों के भूत और भविष्य का सत्य सम्मुख आ खड़ा होगा। पुनः समझोगे कि वे बातें नहीं थी। वे प्रयोजन थे। तुम्हारे भीतर झांकने के और तुम्हारे भीतर कुछ बो सकने के प्रयोजन।

जब भी दृश्य धुंधला जाए। मन दिग्भ्रमित हो उठे। विचार उथल पुथल से भर जाएं तब दो क़दम पीछे हटकर देखना। सम्भव है, उतनी उलझन न रहे जितनी अब है।

अभी तुम जिस बात से आहत हो वह मामूली है। अभी तुमने देखा ही क्या है?
* * *

तस्वीर में नन्हे दोस्त पाठक साब कागज़ की थैली में अमरूद लिए हैं। एक अमरूद थैली से बाहर गिर जाता है। मैं अपने कोट के अगले बटन खोलकर नीचे बैठकर अमरूद उठा लेता हूँ।

"हम इसे वापस थैली में डाल देते हैं।"

पाठक जी हतप्रभ हैं। कि थैली का मुंह उन्होंने पकड़ा हुआ है, अब अमरूद वापस कैसे डाला जाए। मैं कहता हूँ- "ये अमरूद साहब जहां से बाहर को कूदे हैं, वहीं से इनको वापसी का रास्ता दिखाया जाए।"

इसके बाद हमने थैली को दोनों हाथों से थाम लिया ताकि किधर से भी अमरूद न गिरे।
* * *

पाठक जी से मिलकर मैंने सीखा। केवल अमरूद ही वापस लेना। भूल से जो धतूरे थैली में आ जाएं तो तुरंत पहचान कर बाहर कर देना।

ऐसा ही हो क्योंकि ऐसा ही है।

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