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बेंत मेरी नौकरी बेच खाई बंदूक


  • बेंत मारी नौकरी
  • बेच खाई बंदूक।

  • इत्ती गरज कभी न रखी कि किसी व्यक्ति या वस्तु के बिना जीवन न चले। काम अटक जाए, ये अलग बात है। काम अटकेगा तो उदास बंदर की तरह किसी मुंडेर पर बैठ जाएंगे। उलटे लटके रहेंगे दुछत्ती के मकड़े की तरह। घोंघे की तरह याद के सफ़र पर निकल जाएंगे। तकलीफ़ पर अजगर की तरह कुंडली मार कर पड़े रहेंगे। इस सबसे भी आराम न आया तो भालू की तरह शीतनिंद्रा में चले जायेंगे। महीनों बाद जाग कर देखेंगे कि दुनिया का क्या बना।

  • मेरा साहित्य संसार इतना ही है कि दोस्तो से मिलो। गप करो। हुक्का खींचो। प्याले भरो। कभी मन हो तो जैसी दुनिया दिख रही, समझ आ रही। वैसी ही कविता, कहानी, यात्रा के ढब में लिख दो। दोस्तो के पास किताब पड़ी होगी तो दिल खुश हो जाएगा कि थोड़ा सा मैं भी उनके पास पन्नों और शब्दों के सूरत में बचा हुआ हूँ।

  • हेमंत मित्र हैं। प्यार से उल्फ़त नाम दिल में सेव हो रखा है। उन्हीं के साथ बीती शामों में जब अश्विनी शामिल हो गए तो दुनियादारी को क़हक़हों का धुआँ करके उड़ा दिया। कोई बात समझ न आई, कोई काम न सधा, कोई कठिनाई पास आ बैठी तो कहा, छोड़ देंगे नौकरी और बेच देंगे बंदूक। 

  • इस किताब में तकलीफ़ों को धूप में सुखाकर उड़ा देने, ग़मों को कसी हथेलियों में मसल देने और जिजीविषा के घोड़े पर जीन कसते जाने वाले रेगिस्तान से पहाड़ तक के लोगों के कच्चे खाके हैं।

  • जीवन के बिम्बों से भरी संजीदा कहानियों और चुटकी भर शब्दों की तड़प भरी बेवजह की बातों से इतर यात्रा, संस्मरण और गप से बने लोकजीवन के रेखाचित्र।

  • मौखी नंबर आठ, नरगासर, मुड़दा कोटड़ी, रेलवे मैदान, पनघट रोड, भड़भूँजे की भाड़, मोहन जी का सिनेमा, चाय की थड़ी, दल्लुजी कचौरी वालों की दुकान, फ़कीरों का कुआं, स्टेडियम, लुहारों का वास जैसे बेहिसाब ठिकाने, जिनसे मिलकर अलसाए, ऊँघे बाड़मेर की जो सूरत बनती है, वही सब ये किताब है।

  • कहानी नहीं है किन्तु कहानी ही है। कि इस किताब में रेगिस्तान के छोटे से क़स्बे बाड़मेर से की गई दूर-नज़दीक की यात्राएं, बिछड़े दोस्त की याद, बड़ी हस्तियों से की गई बेआवाज़ बातचीत, भांग और विज्ञान के अद्भुत मेल से बनी गप और वह सब, जो आधे जगे, आधे खोये रचा गया। 

  • जीवन का कुछ पक्का नहीं है। जो कर रहे, वह छोड़ दें। जो छोड़ दिया उसे फिर से पकड़ लें। बरसों कुछ न लिखा आगे जाने क्या हो। मगर जब बेचैन, हताश होने लगूँगा तो उसका भी हल है।

  • और करेंगे नौकरी
  • नई लाएँगे बंदूक। 
  • * * * 

  • ये किताब के भीतर किताब के बारे में लिखा है। शीर्षक का मन्तव्य है कि जीवन के बारे में हम कभी न कभी सोचते हैं। इतना सोचने पर अक्सर कहा जाता है कि पागल हुए हो? ये एक वैश्विक प्रश्न है। ये हर उस व्यक्ति के लिए है, जो जीवन को सोचता है। 

  • आप पुस्तक मेला जाएं तो हिन्दयुग्म के स्टाल पर किताब का ज़रूर पूछें कि आ गयी क्या? मैं आऊंगा तब तक आ ही जाएगी। 10 और 11 जनवरी को मिलते हैं। 



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