चाहनाएं तुम्हारा पीछा करती है दिल दीवार की तरह चुप खड़ा रहता है। रेगिस्तान में दिन की तपिश भरी आंधियां रात को मदहोश करने वाली हवा में ढल जाती हैं। एक नशा तारी होने लगता है। बीत चुकी बातों और मुख़्तसर मुलाक़ात की याद किसी भीगी छांव की तरह छा जाती है। कभी किसी शाम धूल उतरती नहीं। आकाश के तारे दिखाई नहीं देते। सब कुछ किसी स्याही में छुप जाता है। उस वक़्त बन्द आंखों में कोई बेहद पुराना स्वप्न टिमटिमाने लगता है। जाने कब नींद आ जाती है कि स्ट्राबेरी जैसा चाँद देखना रह जाता है। जबकि वह ठीक बाईं और चमक रहा होता है। इस चाँद को देखने वाली चाहनाएँ उस जगह जा चुकी है। जहां तुम हो। मगर फिर भी...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]