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Showing posts from June, 2021

सब कुछ किसी स्याही में

चाहनाएं तुम्हारा पीछा करती है दिल दीवार की तरह चुप खड़ा रहता है। रेगिस्तान में दिन की तपिश भरी आंधियां रात को मदहोश करने वाली हवा में ढल जाती हैं। एक नशा तारी होने लगता है। बीत चुकी बातों और मुख़्तसर मुलाक़ात की याद किसी भीगी छांव की तरह छा जाती है। कभी किसी शाम धूल उतरती नहीं। आकाश के तारे दिखाई नहीं देते। सब कुछ किसी स्याही में छुप जाता है। उस वक़्त बन्द आंखों में कोई बेहद पुराना स्वप्न टिमटिमाने लगता है। जाने कब नींद आ जाती है कि स्ट्राबेरी जैसा चाँद देखना रह जाता है। जबकि वह ठीक बाईं और चमक रहा होता है। इस चाँद को देखने वाली चाहनाएँ उस जगह जा चुकी है। जहां तुम हो। मगर फिर भी...

तीज का चांद

शाम ढल रही थी। डूबते सूरज के ऊपर चाँद खिला था। रेगिस्तान के घर की छत पर आहिस्ता रोशनी का पर्दा गिर रहा था। दफ़अतन अंगुलियां स्क्रीन को छूती और फिर मन उन तस्वीरों को देखने से मुकर जाता कि उसने कहा था "ये मैं नहीं हूँ।" एक बार नज़र आसमान की ओर गई तो दिल धक से रह गया। ये चाँद कौनसा है। बचपन में किसी ने कहा था चौथ का चांद मत देखना। अपने ही भीतर गुम रहना। अकसर तारीखें भी याद नहीं रहती तो तिथियों का हिसाब नामुमकिन था। कोई चाहना रहे तो मन हर कुछ खोज आता है। वह भी जो वह नहीं है। ये चौथ का चांद न था। आसमान में तीज का चांद चमक रहा था। क्या ये अच्छा है? पता नहीं। एक सिगरेट टिमटिमाती रही जिस में उसकी सांसें नहीं घुली थी।

जो होना है

सौ दर्द उठाए, तड़पे रोए, बेचैन फिरे कि जी न सकें। सुबह खिले और पल में कुम्हलाए। बाल बनाए चेहरा धोया। बाइक उठाई दफ्तर को गए। शाम ढले उल्फ़त की दुकान पर खड़े-खड़े जब थक से गए। तब घर लौटे। कभी पीने बैठे तो पीते ही रहे। कभी देखा ही नहीं सूंघा ही नहीं। कभी मिले तो कसकर यू गले लगे जैसे ये आख़िरी लम्हा हो। कभी याद किया तो मुस्काए। कभी सोच लिया तो उठ बैठे कि क्या सबकुछ ऐसे ही चलना है। कभी किसी नई सूरत पे आंखें कुछ देर रही। फिर हंसते हुए सोचा जाने दो। कैसे भी रहो और कुछ भी करो वो जो होना है सो होता है।

कितना।

मैं एक उड़ती निगाह से उसके चेहरे को कितना पढ़ सकता था? चेहरे को देखा तो लगा कि शांति पसरी हुई है। उसके होंठ अधखिले बन्द हैं। आंखें मौन से आच्छादित। कुछ लटें जो बढ़कर गालों को चूम लेना चाहती थी, सिखलाए बच्चे की तरह बैठी थी। पानी मोड़ पर जिस तरह हल्का बल खाते हुए उचकता है मैंने उसी तरह मुड़कर देखा था। सोचा कुछ कह दूं। फिर मैंने मौन की गहराई में तलछट तक झांकना चाहा मगर देख न पाया। स्वयं से कहा- "चुप रहो।" शायद झिझक थी। पहचान में बची हुई अजनबियत की झिझक। बहुत बरसों से थोड़ा सा जानने की और उस क्षण तक कुछ न कहे जाने की झिझक। सोच की वनलता पर झूलते हुए मैं बालकनी से बाहर झांकने लगा। पत्तों के बीच अकेली चिड़िया ने जाने किसके लिए गाया। आस-पास कोई न था। मुझे लगा कि गाना सुख को सींचना होता होगा। या किसी ने कहा होगा कि हम मिलेंगे तुम गाते रहना। दाएं बाएं दो तीन बार पल भर की निगाह डालकर चिड़िया उड़ गई। क्या सब ऐसे ही बिना किसी इच्छा से बंधे उड़ सकते हैं। कि अभी यहीं थे और अब नहीं हैं। दोपहर उतर आई है। दूर तक धूप है। आकाश में रेत है। हवा में सरगोशी है। छतें सूनी है। सड़कें खाली हैं। बस एक मेरा मन है,...