कितना।

मैं एक उड़ती निगाह से उसके चेहरे को कितना पढ़ सकता था?
चेहरे को देखा तो लगा कि शांति पसरी हुई है। उसके होंठ अधखिले बन्द हैं। आंखें मौन से आच्छादित। कुछ लटें जो बढ़कर गालों को चूम लेना चाहती थी, सिखलाए बच्चे की तरह बैठी थी।
पानी मोड़ पर जिस तरह हल्का बल खाते हुए उचकता है मैंने उसी तरह मुड़कर देखा था। सोचा कुछ कह दूं। फिर मैंने मौन की गहराई में तलछट तक झांकना चाहा मगर देख न पाया। स्वयं से कहा- "चुप रहो।"
शायद झिझक थी। पहचान में बची हुई अजनबियत की झिझक। बहुत बरसों से थोड़ा सा जानने की और उस क्षण तक कुछ न कहे जाने की झिझक।
सोच की वनलता पर झूलते हुए मैं बालकनी से बाहर झांकने लगा।
पत्तों के बीच अकेली चिड़िया ने जाने किसके लिए गाया। आस-पास कोई न था। मुझे लगा कि गाना सुख को सींचना होता होगा। या किसी ने कहा होगा कि हम मिलेंगे तुम गाते रहना।
दाएं बाएं दो तीन बार पल भर की निगाह डालकर चिड़िया उड़ गई। क्या सब ऐसे ही बिना किसी इच्छा से बंधे उड़ सकते हैं। कि अभी यहीं थे और अब नहीं हैं।
दोपहर उतर आई है। दूर तक धूप है। आकाश में रेत है। हवा में सरगोशी है। छतें सूनी है। सड़कें खाली हैं। बस एक मेरा मन है, जो भरा-भरा सा है। मैं अतीत की अनगिनत चीज़ों को टटोल रहा हूँ। ऐसा नहीं है कि ये बेसबब है।
सबको कुछ चाहिए होता है। ये नहीं मालूम कि कितना।

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