सौ दर्द उठाए, तड़पे रोए, बेचैन फिरे कि जी न सकें। सुबह खिले और पल में कुम्हलाए। बाल बनाए चेहरा धोया। बाइक उठाई दफ्तर को गए। शाम ढले उल्फ़त की दुकान पर खड़े-खड़े जब थक से गए। तब घर लौटे। कभी पीने बैठे तो पीते ही रहे। कभी देखा ही नहीं सूंघा ही नहीं। कभी मिले तो कसकर यू गले लगे जैसे ये आख़िरी लम्हा हो। कभी याद किया तो मुस्काए। कभी सोच लिया तो उठ बैठे कि क्या सबकुछ ऐसे ही चलना है। कभी किसी नई सूरत पे आंखें कुछ देर रही। फिर हंसते हुए सोचा जाने दो।
कैसे भी रहो और कुछ भी करो
वो जो होना है सो होता है।