शाम ढल रही थी। डूबते सूरज के ऊपर चाँद खिला था। रेगिस्तान के घर की छत पर आहिस्ता रोशनी का पर्दा गिर रहा था।
दफ़अतन अंगुलियां स्क्रीन को छूती और फिर मन उन तस्वीरों को देखने से मुकर जाता कि उसने कहा था "ये मैं नहीं हूँ।"
एक बार नज़र आसमान की ओर गई तो दिल धक से रह गया। ये चाँद कौनसा है। बचपन में किसी ने कहा था चौथ का चांद मत देखना। अपने ही भीतर गुम रहना।
अकसर तारीखें भी याद नहीं रहती तो तिथियों का हिसाब नामुमकिन था। कोई चाहना रहे तो मन हर कुछ खोज आता है। वह भी जो वह नहीं है।
ये चौथ का चांद न था। आसमान में तीज का चांद चमक रहा था। क्या ये अच्छा है?
पता नहीं। एक सिगरेट टिमटिमाती रही जिस में उसकी सांसें नहीं घुली थी।