विदेशी लोग थे। कड़ी धूप थी। बारिश से पहले की उमस थी। उनका उत्साह इन सबसे अधिक था। गलता जी के निचले कुंड के पास बैठक बनी हुई है। यहां कभी गद्दे और मसनद लगती होंगी। पानी को छूकर आती हवा के ठंडे झकोरे आते होंगे।
अब यहां बंदर अपने बच्चों के साथ लेटे हुए थे। दो श्वान भी दोपहर का आराम कर रहे थे। आकाश में कुछ बादल थे लेकिन बारिश की आस नहीं थी। एक श्वान उठा और कुंड के पानी में जाकर बैठ गया। गर्मी से राहत का तात्कालिक उपाय यही था।
विदेशी लोगों का दल कुंड के बीच बने फव्वारे की ओर मुंह करके योग मुद्राओं में तस्वीरें खिंचवा रहा था। धूप से अपरिचित रहने वाली उनकी त्वचा पर हल्की आग थी। किंतु उनके चेहरों पर इस जगह होने का आनंद था।
मैं पसीने से भीग गया था। मेरी पीठ पर उमस ने गहरी लकीरें उकेर दी थी। मैं सीढ़ियां उतरते हुए ऊपरी कुंड में नहाने वाले बच्चों और युवाओं के श्याम वर्ण को याद कर रहा था। वे उत्साहित होकर गोता लगाते और फिर सांकल पकड़े हुए खड़े मुस्कुराते थे।
पानी का रंग ही पानी के स्वास्थ्य को बताने के लिए पर्याप्त था। काई का अश्वमेध यज्ञ संपन्न हो चुका था। उसने कुंड में कोई जगह नहीं छोड़ी थी। एक बीम थी। उस पर गीली मिट्टी जमी हुई थी। बंदर वहां भी बैठे थे। साथ में छोटे बच्चे भी थे। सब उनींदे थे। कि वह एक वातानुकूलित जगह थी।
बीम से गिरने का डर बंदरों को नहीं होगा। वैसे भी नीचे पानी था। किंतु मैंने उनकी इस जगह के बारे में सोचा तो सिहरन हुई। सफाई की जाती होगी। मुझे मालूम नहीं है। फिर भी इस जगह को थोड़ा अधिक वैज्ञानिक तरीके और आधुनिक मशीनों से साफ किया जा सकता है।
बंदरों के लिए केले, मूंगफली और मखाने हर जगह रखे हुए थे। छोटे बंदर दोपहर तक भोजन में लीन थे जबकि बड़े बंदर सोए हुए से थे। कुछ एक अपने कबीले की परंपरा अनुसार सेवा भाव में लीन थे।
सबसे ऊपर एक छोटा कुंड है। उसमें मनुष्यों द्वारा फैलाया गया कचरा था। प्लास्टिक बोतल, थैली और कुछ कपड़े के टुकड़े। कुंड के आस पास की गई कोबरा फेंसिंग पर भी लोगों ने फटे हुए कपड़े टांग रखे थे।
हमारे यहां परंपरा बनने में देर नहीं लगती। असल में उसे परंपरा कहने के स्थान पर भेड़ चाल कहना चाहिए। भेड़ कहना भी ठीक नहीं है कि सर झुकाए अगली भेड़ के पीछे चलते जाना उनका प्राकृतिक स्वभाव है। मनुष्य तो अति बुद्धि में मूर्खतापूर्ण कार्य आरंभ करता है। किसी ने ताला टांगा तो सब ताले टांगते जाते। किसी ने एक रिबन बांधा तो सब यही करते जाते। ऐसे ही फटी हुई साड़ियां और पुराने कंबल फेंसिंग पर लटके हुए थे।
दूर देस से आए लोग जो कि योग मुद्रा में अपनी तस्वीरें खिंचवाने की प्रसन्नता में गर्मी को भूल गए थे। वे स्थानीय पर्यटकों के फैलाए कूड़े करकट को अपनी तस्वीरों में साथ लेकर जाएंगे।
गलता जी परिसर में दो सुंदर मंदिर है। एक सीताराम जी का है। सीताराम जी के मंदिर में ही सुरंगनुमा रास्ता है। ये रास्ता बालाजी के मंदिर में जाता है। वहां के सेवक का कहना था कि इस स्थान पर अखंड ज्योत है। ये बालाजी स्वयं प्रकट हुए हैं।
मंदिर में चढ़ावे के लिए कोई दबाव तो क्या आग्रह भी नहीं था। दानपेटी रखी थी। यूपीआई से भी चढ़ावा करने की व्यवस्था थी। मंदिर परिसर में गहरी शांति थी। महिलाओं का एक समूह दर्शन के पश्चात शांत बैठा हुआ था। हमने गलता जी परिसर में प्रवेश करने के समय उत्तर प्रदेश परिवहन की रजिस्टर्ड बस देखी थी। इस से अनुमान लगाया कि ये उसी किसी तरफ के पर्यटक हैं।
पयोहारी बाबा की गुफा की ओर जाने वाले रास्ते के पास बने भवन की दीवार के सहारे बेंच रखी थी। मैं थोड़ी देर बैठा रहा। वहां से दिखते भव्य निर्माण की प्राचीनता के बारे में सोचने लगा। विज्ञान ने आधुनिक संसार का बहुत भला किया है लेकिन उसने सहयोग और मनुष्यता को हमसे छीन लिया है।