मैं प्रतीक्षा में था। हालांकि जीवन बीत चुका है और कोई प्रतीक्षा कभी गहरी मित्र नहीं हुई।
इसी प्रतीक्षा में आस पास को देखता रहता हूँ । चीज़ें कैसी हैं। उनका विन्यास कैसा है। रंग रूप किस तरह खिला बुझा है। लोग क्या कर रहे हैं। वे कैसे मनोभावों से घिरे हैं और कितने मनोभाव पढ़े जा सकते हैं।
इस देखने को अकसर शब्दों में उतार लेता हूँ। कि शब्दों से थोड़ी सी मित्रता है। किसी बात को ठीक ठीक कह देने लायक बना देते हैं। कभी कभी मैं मोबाइल से या कैमरा से तस्वीरें खींच लेता हूँ।
वैसे तस्वीर को न उतारा जा सकता है, न ही खींचा। कहां से उतारा जाता है। क्या तस्वीर कहीं ऊपर रखी है। क्या तस्वीर किसी हाथी-घोड़े पर चढ़ी है। और खींचना कैसे होता है। कोई फंदा डालकर या रंढू से बांधकर खींचा जाता है? हालांकि वह दूर का दृश्य है। उसे बिना पास गए सहेज लिया गया है लेकिन खींचा कैसे ये मुझे समझ नहीं आता।
फिर भी परसों शाम बाड़मेर के विवेकानंद सर्कल पर प्रतीक्षा में खड़े हुए मैंने एक तस्वीर ली। मैं वैसा ही छायाकार हूँ, जैसा कि संयोग से लेखक या रेडियो पर बोलने का काम करने वाला हूँ। कुछ परिस्थितियां ही होती हैं।
इसी परिस्थिति में मुझे तस्वीर में एक उल्टा धूमकेतु दिखाई दिया। आप इसे पुच्छल तारा की जगह अग्गल तारा कह सकते हैं।
जीवन में भरोसा नहीं रखना चाहिए फिर भी कभी न कभी वह हो जाता है, जिसकी आप आशा नहीं करते। जैसे मैं एक बहुत दूर राज्य के आदमी के बारे में सोचता था कि उससे कभी मिलना नहीं होगा।
अचानक पांच सात लोगों के घेरे से एक व्यक्ति बाहर आया। उसने मुझ जाते हुए को आवाज़ दी। केसी। मैंने मुड़कर देखा। वह मेरे सामने खड़ा था। हम गले मिले। कसकर गले मिले।
फिर उसने कहा। जैसलमेर जा रहा हूँ। संयोग से इधर से निकला। सोचा था कि तुम क्या ही मिलोगे, मैं कहाँ खोज पाऊंगा। ये भी नहीं मालूम था कि जयपुर रहते हो या यहाँ।
उसने अपनी जेब पर हाथ रखा मगर जेब खाली थी। मैंने भी अपनी तलाशी ली लेकिन मेरी जेब में भी सिगरेट नहीं थी। वह जो लंबी प्रतीक्षा थी। अचानक समाप्त हुई।
उसके जाते ही किसी दूजी प्रतीक्षा ने मेरा हाथ थाम लिया।