कुछ देर कुछ न सोचें

शरद पूर्णिमा आने को है। उसके साथ हेमंत ऋतु आएगी।

सुबह का समय है। मैं खुले आंगन में बैठा हूं। बाखल में पुष्पों की सुवास है। दक्षिणी हवा के संग मादकता बिखर रही है। बहुत शांति है। गली में भी जाने किस कारण शोर का कारखाना बंद है। 

अचानक याद आता है कि अपना स्वास्थ्य अच्छा हो तो सब भला लगता है। महीने भर से कफ और खांसी से कठिनाई खड़ी कर रखी थी। दिन रात एक से हो गए थे। थकान भरा बदन लिए कुछ काम करो कुछ सांस लो। जिस हाल में सोना उसी में जाग जाना। अजीब चक्र बन गया था। आज स्वास्थ्य भला लग रहा।

अक्टूबर जब बीतने को होगा हल्की गुलाबी ठंड प्रारंभ हो जाएगी। अगले दो महीने में शिशिर ऋतु का आगमन होगा। तब ठंड होगी। गर्म कपड़े होंगे। इसी जगह बैठे हुए धूप की प्रतीक्षा होगी किंतु दोपहर तक थोड़ी सी कच्ची धूप मिलेगी। 

हम अक्सर अकारण उलझ जाते हैं। समझते हैं कि ये आवश्यक कार्य है, इसे पूर्ण करके ही आराम करेंगे। वास्तव में ये एक जटिल फंदा होता है, जिसमें अपने दिन रात फंसा लेते हैं। जीवन है तो काम बने रहेंगे। सब काम कभी एक साथ पूरे नहीं किए जाएंगे। हर काम के बाद एक नया नया काम आ खड़ा होगा। 

इसलिए थोड़ा समय प्रतिदिन अपने लिए बचाना चाहिए कि आराम कर लें। बिना हड़बड़ी के कहीं बैठ जाएं। घर के कोने का चक्कर लगाते हुए फूलों पत्तियों को निहार लें। कुछ देर कुछ न सोचें और फिर कोई काम शुरू करें। 

ये सब किसी को कहना कितना आसान है कि कुछ भी कहीं नहीं जा रहा। न कुछ दौड़ने से प्राप्य। सब जीवन गति का भाग है। अभी लगता है छूट रहा है। बाद समय के लगता है, वह इतना भी आवश्यक नहीं था। लेकिन इस बात को अपने भीतर बसा लेना, इसी तरह जीना कितना कठिन। 

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