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स्फिंक्स, कई मौसम बीत गए हैं ढंग से पीये हुए.

जिन चीजों को आप सीधा रखना चाहते हैं वे अक्सर उल्टी गिरती हैं. आईने हमेशा खूबसूरत अक्स की जगह सिलवटों से भरा सदियों पुराना चेहरा दिखाया करते हैं. किस्मत को चमकाने वाले पत्थरों के रंग अँगुलियों में पहनेपहने धुंधले हो गए हैं तो मैंने उन्हें ताक पर टांग दिया है. अफ़सोस ज़िन्दगी से ख़ास नहीं है. कुछ लम्हें तुम्हारे लिए रखे थे वे बासी हो गए हैं और कुछ आंसू पता नहीं किसके लिए हैं जो मेरी आँख से बहते रहते हैं. मेरा अधोपतन तीव्र गति से हो रहा है ऐसे संकेत मिल रहे हैं. पिछले साल दो बार ही "की बोर्ड " पर अंगुलियाँ चलाने का सामर्थ्य जुट पाया था. जिंदगी में जो बची हुई दोस्त थी. उनमे से एक से सम्मुख विवाद के बाद स्यापा मिट गया है और एक तर्के-ताल्लुक पर कब से ही आमादा है.

जैसे दिन हैं
शाम भी वैसी ही निकली. सात महीने बाद टी वी चलाया तो स्टार न्यूज़ पर अद्भुत रिपोर्ट देखी. सदी की महानतम लापरवाही अब तक मैं कोपेनहेगन शिखर सम्मलेन को मान रहा था. कल मालूम हुआ कि वह इसके आगे कुछ नहीं कि सहवाग पहली पारी में सौ रन बना कर देशद्रोही हो गया था और उसने अगली पारी में खुद को स्वात घाटी में बैठे हुए किसी कठमुल्ले का प्रतिनिधि साबित किया. ख़बर ने मुझे व्यथित कर दिया. देश पर मंडरा रहे संकट के जिम्मेदार को पहचान तो लिया गया है मगर अभी भी कई दशकों से राष्ट्रद्रोही ख़ुशी से हैं तो सहवाग को दंड शायद ही मिल पाए. ये खेल कितने हज़ार करोड़ का कारोबार है ? कौन चलाता है ? मिडिया को कितना मिलता है ? इस खेल की नियामक संस्था से भारत सरकार का कोई लेना देना ? फिर ये किस देश के लोग हैं और यहाँ क्या कर रहे हैं ? स्टार न्यूज़ जैसे कितने चेनल हैं ? ऐसे सवालों ने शाम खराब कर दी. तीन पैग लिए तब जा के गाड़ी ने फिर से स्टार्ट लेना शुरू किया. फ़िराक साहब हँसते खेलते महफ़िल में आते और दो घूँट लेकर संजीदा हो जाया करते थे किन्तु मैं आराम में जाता हूँ.

सवाल ये भी दिमाग में आता है कि गरीब आदमी को इस धरती पर बहुत कोसा जाता है. बिलगेट्स ने कहा था या नहीं पर मेरी जितनी ही औकात वाले एक एस एम एस को फोरवर्ड करते रहते हैं "गरीब पैदा होना आपका दोष नहीं है पर गरीब मरना..." गरीब दारू पीकर मर जाता है, फिर वो कौनसा द्रव्य है जिससे अमर हो पाए ? लालची और शोषक राजे महाराजे नहीं बचे, महल और हवेलियाँ नहीं बची तो गरीब भी क्या ? मेरे साथ एक अलवर के सज्जन काम करते हैं. उनको सब यादव साहब कहते हैं. बाईस साल से पी रहे है. कुल्ला भी उसी से करते हैं. कमज़र्फ बेअसर शराब, नालायक शराब, बदजात शराब और ये चोर कम्पनियाँ... लेकिन, आपको क्या लगता है कब तक जियेगा ? वैसे इन दिनों वह पिया हुआ नहीं होता है तब सूखे तिनके सा हिलता रहता है.

शराब के कसीदे पढना वस्तुतः अपने मानसिक कुपोषण के पोषण का प्रयास मात्र होता है फिर भी मैं एक जिम्मेदार आदमी हूँ, मन हो तो कई दिनों तक नहीं पीता लेकिन जब अफ़लाक से ही जाये तो रात से पहले मैं खुद जवान होने लगता हूँ, कई सारे दुःख दर्द हल्के हो जाया करते हैं, मन में क्षमा भाव बढ़ जाता है, किसी दब्बू की भांति किये गए व्यवहार को फिर से ना दोहराए जाने का हौसला जाता है, मुहब्बत जाग उठती है, सराही और ठुकराई गयी सब स्त्रियाँ, भोगे और भगाए गए सब सुख याद आते हैं और रोने को जी चाहता है. त्रुटियों के पक्ष में नए तर्क हाजिर होने लगते हैं. कल दिन भर जिसे "लुकिंग हॉट" कह कर मन पछताता रहा, उसके समर्थन में कई तस्वीरें बनने लगती है. सुंदर है तो है... कहना पहले भी अपराध था और आज भी है. पहले भी होता था और आज भी हो गया. अब हर कोई चमचूतिया, कविता तो नहीं कर सकता ना...

कविता ना कर पाने का कोई गिला नहीं है मगर इस अजब समय में ग्रीक पौराणिक कथाओं के दानव स्फिंक्स की तरह इस दुनिया का हर इंसान पहेलियाँ पूछता है और उत्तर ना दे पाने वालों का गला घोंट देने को वचनबद्ध है. ढंग के लोग और दिन दुनिया में बचे ही नहीं हैं. दोस्त बाबू लाल तेरी याद रही है, कितने ही दिन हुए है दुनिया को सर से उतार कर पिए हुए.

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उसका नाम चेन्नमा था. उसके माता पिता ने उसे बसवी बना कर छोड़ दिया था. बसवी माने भगवान के नाम पर पुरुषों की सेवा के लिए जीवन का समर्पण. चेनम्मा के माता पिता जमींदार ब्राह्मण थे. सात-आठ साल पहले वह बीमार हो गयी तो उन्होंने अपने कुल देवता से आग्रह किया था कि वे इस अबोध बालिका को भला चंगा कर दें तो वे उसे बसवी बना देंगे. ऐसा ही हुआ. फिर उस कुलीन ब्राह्मण के घर जब कोई मेहमान आता तो उसकी सेवा करना बसवी का सौभाग्य होता. इससे ईश्वर प्रसन्न हो जाते थे. नागवल्ली गाँव के ब्राह्मण करियप्पा के घर जब मैं पहुंचा तब मैंने उसे पहली बार देखा था. उस लड़की के बारे में बहुत संक्षेप में बताता हूँ कि उसका रंग गेंहुआ था. मुख देखने में सुंदर. भरी जवानी में गदराया हुआ शरीर. जब भी मैं देखता उसके होठों पर एक स्वाभाविक मुस्कान पाता. आँखों में बचपन की अल्हड़ता की चमक बाकी थी. दिन भर घूम फिर लेने के बाद रात के भोजन के पश्चात वह कमरे में आई और उसने मद्धम रौशनी वाली लालटेन की लौ को और कम कर दिया. वह बिस्तर पर मेरे पास आकार बैठ गयी. मैंने थूक निगलते हुए कहा ये गलत है. वह निर्दोष और नजदीक चली आई. फिर उसी न...

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