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सोये हुए दिनों के कुछ पल

ऐसा नहीं है कि मैं आत्मरति के तिमिर में खो जाने के लिए एकाएक गायब हो जाया करता हूँ. मैं उन्हीं जगहों पर होता हूँ मगर खुद को उस लय में पा नहीं सकता. दिन के किसी वक्त या अक्सर सुबह कई परछाइयाँ मेरे सिरहाने उतर आती हैं. उनकी शक्लें बन नहीं पाती. वे या तो बहुत भारी या फिर उदास हुआ करती हैं कि मैं ऑफिस जाने के लिए जरूरी सामर्थ्य को खो बैठता हूँ. रिवाल्विंग चेयर या फिर सात फीट लम्बे चौड़े बिस्तर पर अधलेटा अलसाया हुआ तीन पंक्तियाँ लिखता और चार मिटाता रहता हूँ. एक भोगे हुए किन्तु बेचैन मन की तरह विलंबित लय में अपनी जगह बदलता रहता हूँ. दोपहर बाद पत्नी ऑफिस से लौट आती "मुझे नहीं लगता कि आज ऑफिस जा पाओगे"

बस ऐसे ही कई दिन बीत गए हैं. ऑफिस गया भी और लौट भी आया. दर्ज करने लायक कुछ नहीं था. इन पंद्रह दिनों में रेल, शोर, शहर, माल, केफे, बर्गर, चायनीज़, स्पेनिश, सरकारी गाड़ियाँ और चौराहों पर खिले हुए फूलों की लघुतम स्मृतियां ही बची. याद रखने के तरीके सिखाने वाले कहते हैं कि आपको सिर्फ वही याद रहता है जिसे आप सख्त पसंद या सख्त नापसंद करते हैं.

मेरी यादों में लगभग यही है. बीच की सारी चीजें धुंधली हो गई हैं. सप्ताह भर पहले वापस अपने घर लौटने के लिए प्लेटफार्म नंबर तीन पर उतरने वाली सीढियों के आगे बेतरतीब रखे सामान को पार करते हुए परिवार के साथ खड़ा था. शाम बहुत सामान्य थी. नज़र दूसरी तरफ जाकर अचानक रुक गई जैसे किसी देखते हुए को देख लिया हो. कमसिन लड़की थी.

आज एक फोन करता हूँ फिर बीस मिनट के वार्तालाप में भीगी नम आवाज़ को सुनते हुए पाता हूँ कि कुछ मौसम बड़े जिद्दी होते हैं. वे लौट - लौट आया करते हैं. इस पीड़ादायक युग से होड़ करता हुआ आदमी जाने कैसे प्रेम के लिए समय निकाल लेता है. गहन अनुभूतियों और सन्निहित संवेदनाओं के बाजारू हो जाने के अंदेशे के बीच जीने के लिए एक मुकम्मल दर्द को खोज ही लाता है. धूप और ओस को एक ही माला में पिरोने वाले मेरे ये दोस्त सच में कितने अच्छे हैं. मैं इनके लिए दुआएं करता रहना चाहता हूँ.

चलो उठो... आज फिर दिन के तीन बजने को.

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