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और अब क्या ज़माना खराब आयेगा

पंडित शहर का है और घर के बड़े बूढ़े सब गाँव से आये हैं. गणपति की स्तुति के श्लोकों के अतिरिक्त पीली धोती धारण किये हुए पंडित जी क्या उच्चारण करते हैं ये मेरी समझ से परे है किन्तु विधि विधान से आयोजन चलता रहता है. जटाधारी नारियल के साथ एक मौली भेजी जानी है जिस पर गांठें लगनी है. ये गांठे इस परिवार की ओर से तय विवाह दिवस को निर्धारित करती हैं. इन गांठों को दुल्हे के घर में हर दिन एक एक कर के खोला जाता रहेगा और आखिरी गाँठ वाले दिन शादी होगी तो उन्हें हिसाब से दुल्हन के यहाँ बारात लेकर पहुच जाना है.

कभी हमारे यहाँ तिथि-दिवसों का और कागज-पत्रियों का उपलब्ध होना असंभव बात थी. फेरी पर निकलने वाले गाँव के महाराज से हर कोई तिथि और दिवस पूछा करता था. खेतों में काम करने के सिवा कोई काम नहीं था. ये तो बहुत बाद की बात है, जब स्कूलों का अवतरण हुआ. मेरे पिता और ताऊ जी घर से पच्चीस किलोमीटर दूर पढने जाया करते थे. उन दिनों अनपढ़ लोगों से याददाश्त में भूल हो जाना बड़ी बात नहीं थी इसलिए नारियल के साथ मौली में बंधी गांठे ही विश्वसनीय सहारा होती थी. कई बार भूल से अधिक गांठें खोली जाने से बारातें एक दो दिन पहले पहुँच जाया करती थी. इस मूर्खता के उदाहरण हर बार लग्न लिखे जाते समय दोहराए जाते रहते. दुल्हे के घर में गांठ खोलने का काम अक्सर उसकी माँ के ही पास होता है. इन दिनों लगभग हर दुल्हे की माँ के पास मोबाईल फोन है. विवाह के निमंत्रण पत्र में छपी तिथि को पढने जितना ज्ञान है. घर की दीवारों पर, टेबल पर और हाथ घड़ियों में कलेंडर है फिर भी अगर गांठे नहीं दी जाएगी तो लग्न कैसे भेजा जा सकता है ?

मैंने और जया ने कल दिन का भोजन भी इसी ख़ुशी भरे घर में किया. सच में जिस घर में विवाह होता है, उसके खाने का स्वाद बदल जाता है. उसमे विवाह की खुशबू घुल जाती है. बीस साल पहले मैं एक ऐसे नेक आदमी की संगत में था जो रिजर्व बैंक के गवर्नर के घर और केन्द्रीय मंत्रियों के महाभोजों में मुझे अपने साथ ले जाता था. वे बीसियों पकवानों वाले खाने व्यापार और सियासत की खुशबू से भरे होते थे लेकिन उसी उच्च कुलीन वर्ग के विवाहों के खाने में यही खुशबू जाने कहां से आ ही जाया करती थी. विवाह भोज की खुशबू हमारे मस्तिष्क में बसी है और ये इसलिए भी अलग है कि इसमें कोई सियासत नहीं है.

हमारे यहाँ मुख्यतः बाजरा उत्पादन करने वाले किसानों की आय बहुत सीमित है तो परंपरागत रूप से हलुआ और तेज लाल मिर्च में पके हुए काले चने वैवाहिक अवसरों पर भोज की एक मात्र डिश हुआ करते हैं. यह बनाना आसान है. इससे भी बड़ी बात है कि ये सामाजिक बराबरी की बात है. आप सिर्फ लाल मिर्च के कम ज्यादा होने पर ही चर्चा कर सकते हैं. सरपंच हो या किसान सबका भोज एक सा होता था. समय के साथ बहुत बदलाव आया है. आज कल गावों में बड़े शामियाने लगाये जाने लगे हैं. शहर से आये कंदोई तीन चार तरह की सब्जी और इतनी ही प्रकार की मिठाइयां बनाते हैं. दिखावा और फिजूल खर्ची बढ़ते जा रहे हैं. जो अच्छी परम्पराएँ थी वे हमने छोड़ दी लेकिन मौली में गाँठ लगाना नहीं छोड़ा.

दोस्त कभी सावों के समय इधर आओ... हम किसी सुदूर रेतीले गाँव के विवाह भोज में घुस जाएंगे और खूब सारा हलुआ और काले चने का सूप पियेंगे. तब तक के लिए सबा के दो शेर सुनो. पहला वाला तुम्हारे लिए और दूसरा वाला मेरी बार के मालिक के लिए.

आज कल मुझसे वो बात करता नहीं, और अब क्या ज़माना खराब आयेगा.
मालिक-ए-मयकदा रिंद हो जायेंगे, मयकदे में नया इंक़लाब आयेगा !!


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