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घर से भागी हुई दुनिया

ये दुनिया ऊबे हुए, निराश और भावनात्मक रूप से नितांत अकेले लोगों की सदी में प्रवेश कर चुकी है. इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के कुछ ही दिन शेष हैं. ख़ुशी और सुकून की तलाश में घर से भागी हुई दुनिया फिलहाल हांफने लगी है आगे की मंजिलें क्रमशः हताशा, अवसाद, पागलपन और विध्वंस है. ऐसा होना भी बेहद जरुरी है ताकि फिर से ताजा कोंपलें फूटें और कार्बन क्रेडिट का हिसाब बंद हो सके.

आज क्रिसमस मनाया जा रहा है. दुनिया के सभी पर्वों और त्योहारों की तरह इस पावन अवसर को भी अवास्तविक बाज़ारवाद ने अपने शिकंजे में ले रखा है. रिश्तों की दरारें सामाजिक स्तर पर स्वीकृतियां पा चुकी है. इनकी मरम्मत करने के स्थान पर तन्हा होता जा रहा आज का समाज बेहतर दिखने की कोशिशों में लगा रहता है. अकेले हो चुके परिवार हर साल खरीददारी करने निकल जाते है और अपने आस पास उपभोग और मनोरंजन की सामग्री को जमा करके टूटते रिश्तों को भुलाने के नाकाम प्रयास करते हैं.

इस बार मौसम की मार है. हालाँकि बर्फ़बारी के आंकड़े अस्सी के दशक को अभी मात नहीं कर पाए हैं लेकिन इन बीते हुए चालीस सालों के दौरान तकनीक के हवाले हो चुके मानवीय अहसासों के शोक में बहुत बुरा लग रहा है कि क्रिसमस फीका है. अपने आनंद के रिफिल के अवसरों को जाया होते देख कर चिंतित होना लाजमी है. परिवार नया सामान लाता, नए दोस्त घर पर आते, केरोल्स गाते और फिर कुछ सुकून क्रिसमस ट्री से टपकने लगता. ऐसा न हो पाना आदमी को उसकी तन्हाई का सच्चा आईना दिखाता है. इसमें जो अक्स उभरता है वह बड़ा भयावह है.

इस दशक में दुनिया भर में सर्वाधिक बिकने वाली पुस्तकें नोस्टेल्जिया की थी. ये विपरीत संकेत है कि यानि वो दुनिया बेहतर थी. हम अक्सर अपने बचपन के फोटो को पसंद नहीं करते. हमें लगता है कि वह बड़े बुद्धू की तस्वीर है, उसमे आधुनिकता नहीं है और उसकी सुन्दरता आज के मापदंडों पर ठीक नहीं बैठती है. मैंने अपने बहुत से फोटोग्राफ्स को इधर उधर कर दिया है. एंड्रोयड ऑपरेटिंग सिस्टम वाले सेल फोन को उपयोग में लेते समय मुझे अपनी भोंदू सी पिचके गालों वाली तस्वीरों से ख़ुशी नहीं मिलती लेकिन इस साल के दौरान मैंने नोस्टेल्जिया को ब्लॉग करके जो सुख पाया है वह अविस्मरणीय है.

मेरी स्मृतियों में प्रेम की गाढ़ी दास्तान है और कुछ एक बेहद हसीन दोस्त हैं. मेरे पास कभी रिजोल्यूशन नहीं थे, जो जैसा मिला उससे मैंने प्रेम किया है. प्रेम कोई मील का पत्थर नहीं था. मैं उसके जितना पास गया वह उतना ही दूर होता गया. प्रेम मरुथल की मरीचिका भी नहीं था. उसमें छुअन का अहसास था. कुछ ख़त थे और ढेरों निवेदन... वह बरसों बरस चलता ही रहा. उसकी यादें उसका पोषण करती रही. नास्टेल्जिया को जीना भविष्य की दुरुहताओं को भले ही आसान ना करता हो लेकिन एक आस तो बांधता ही है कि कभी कहीं हम एक मुकम्मल अहसास जी पाएंगे तो मेरी निराशा और ऊब साथ रहते हुए भी मुझे जीने का सामान देती रही.

इस दशक के आखिर में दोस्त तुमको एक फिल्म और एक किताब सजेस्ट करना चाहता हूँ. दोनों मेरे ख़याल से अधूरी है और जरुरी भी. सोफिया कपोला की फिल्म "समवेयर". अफ़सोस कि यह भी फार्मूला है. महानायक के व्यक्तिगत जीवन की हताशा और अकेलेपन को केनवास पर उतारती है. सोफिया ने इसमें सदी के दुष्प्रभावों को नायक केन्द्रित कर दिया है. कमोबेश आर्थिक स्तर की प्रत्येक लेयर में जी रहे लोग इसी मुसीबत के मारे हुए हैं. ऐसे ही यियुन ली का फिक्शन "गोल्ड बॉय ईमर्ल्ड गर्ल" एक साथ कई कहानियों की याद दिलाता है. इस बेस्ट सेलर को देख कर ये भी याद आता है कि दुनिया जिस आदर्श समाज के ख्वाब देखती है वह हद दर्जे का असहिष्णु और अमानवीय हो गया है.


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स्वर्ग से निष्कासित

शैतान प्रतिनायक है, एंटी हीरो।  सनातनी कथाओं से लेकर पश्चिमी की धार्मिक कथाओं और कालांतर में श्रेष्ठ साहित्य कही जाने वाली रचनाओं में अमर है। उसकी अमरता सामाजिक निषेधों की असफलता के कारण है।  व्यक्ति के जीवन को उसकी इच्छाओं का दमन करके एक सांचे में फिट करने का काम अप्राकृतिक है। मन और उसकी चाहना प्राकृतिक है। इस पर पहरा बिठाने के सामाजिक आदेश कृत्रिम हैं। जो कुछ भी प्रकृति के विरुद्ध है, उसका नष्ट होना अवश्यंभावी है।  यही शैतान का प्राणतत्व है।  जॉन मिल्टन के पैराडाइज़ लॉस्ट और ज्योफ्री चौसर की द कैंटरबरी टेल्स से लेकर उन सभी कथाओं में शैतान है, जो स्वर्ग और नरक की अवधारणा को कहते हैं।  शैतान अच्छा नहीं था इसलिए उसे स्वर्ग से पृथ्वी की ओर धकेल दिया गया। इस से इतना तय हुआ कि पृथ्वी स्वर्ग से निम्न स्थान था। वह पृथ्वी जिसके लोगों ने स्वर्ग की कल्पना की थी। स्वर्ग जिसने तय किया कि पृथ्वी शैतानों के रहने के लिए है। अन्यथा शैतान को किसी और ग्रह की ओर धकेल दिया जाता। या फिर स्वर्ग के अधिकारी पृथ्वी वासियों को दंडित करना चाहते थे कि आखिर उन्होंने स्वर्ग की कल्पना ही क्य...

टूटी हुई बिखरी हुई

हाउ फार इज फार और ब्रोकन एंड स्पिल्ड आउट दोनों प्राचीन कहन हैं। पहली दार्शनिकों और तर्क करने वालों को जितनी प्रिय है, उतनी ही कवियों और कथाकारों को भाती रही है। दूसरी कहन नष्ट हो चुकने के बाद बचे रहे भाव या अनुभूति को कहती है।  टूटी हुई बिखरी हुई शमशेर बहादुर सिंह जी की प्रसिद्ध कविता है। शमशेर बहादुर सिंह उर्दू और फारसी के विद्यार्थी थे आगे चलकर उन्होंने हिंदी पढ़ी थी। प्रगतिशील कविता के स्तंभ माने जाते हैं। उनकी छंदमुक्त कविता में मारक बिंब उपस्थित रहते हैं। प्रेम की कविता द्वारा अभिव्यक्ति में उनका सानी कोई नहीं है। कि वे अपनी विशिष्ट, सूक्ष्म रचनाधर्मिता से कम शब्दों में समूची बात समेट देते हैं।  इसी शीर्षक से इरफ़ान जी का ब्लॉग भी है। पता नहीं शमशेर उनको प्रिय रहे हैं या उन्होंने किसी और कारण से अपने ब्लॉग का शीर्षक ये चुना है।  पहले मानव कौल की किताब आई बहुत दूर कितना दूर होता है। अब उनकी नई किताब आ गई है, टूटी हुई बिखरी हुई। ये एक उपन्यास है। वैसे मानव कौल के एक उपन्यास का शीर्षक तितली है। जयशंकर प्रसाद जी के दूसरे उपन्यास का शीर्षक भी तितली था। ब्रोकन ...

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उसका नाम चेन्नमा था. उसके माता पिता ने उसे बसवी बना कर छोड़ दिया था. बसवी माने भगवान के नाम पर पुरुषों की सेवा के लिए जीवन का समर्पण. चेनम्मा के माता पिता जमींदार ब्राह्मण थे. सात-आठ साल पहले वह बीमार हो गयी तो उन्होंने अपने कुल देवता से आग्रह किया था कि वे इस अबोध बालिका को भला चंगा कर दें तो वे उसे बसवी बना देंगे. ऐसा ही हुआ. फिर उस कुलीन ब्राह्मण के घर जब कोई मेहमान आता तो उसकी सेवा करना बसवी का सौभाग्य होता. इससे ईश्वर प्रसन्न हो जाते थे. नागवल्ली गाँव के ब्राह्मण करियप्पा के घर जब मैं पहुंचा तब मैंने उसे पहली बार देखा था. उस लड़की के बारे में बहुत संक्षेप में बताता हूँ कि उसका रंग गेंहुआ था. मुख देखने में सुंदर. भरी जवानी में गदराया हुआ शरीर. जब भी मैं देखता उसके होठों पर एक स्वाभाविक मुस्कान पाता. आँखों में बचपन की अल्हड़ता की चमक बाकी थी. दिन भर घूम फिर लेने के बाद रात के भोजन के पश्चात वह कमरे में आई और उसने मद्धम रौशनी वाली लालटेन की लौ को और कम कर दिया. वह बिस्तर पर मेरे पास आकार बैठ गयी. मैंने थूक निगलते हुए कहा ये गलत है. वह निर्दोष और नजदीक चली आई. फिर उसी न...