चैन भी है कुछ खोया खोया...



एकांत के अरण्य का विस्तार क्षितिज तक फैला दीखता है किन्तु इसकी भीतरी बुनावट असंख्य, अदृश्य जटिलताओं को समेटे हुए है. एक विचार जब कभी इस जाल के तंतु को छू जाये तो भीतर रह रही, अवसाद नामक मकड़ी तुरंत सक्रिय हो जाती है. मैं इसीलिए निश्चेष्ट और निरुद्धेश्य समय को बीतते हुए देखता हूँ. उसने कई बार कहा कि आप लिखो. मुझे इसका फ़ौरी जवाब यही सूझता कि हाँ मैं लिखूंगा. लेकिन आवाज़ के बंद होते ही उसी समतल वीराने में पहुँच जाता हूँ. जहाँ जीवन, भुरभुरे ख़यालों की ज़मीन है. दरकती, बिखरती हुई...

संभव है कि विलक्षण व्यक्तियों का लिखा हुआ कई सौ सालों तक पढ़ा जाता रहेगा और पाठक के मन में उस लिखने वाले की स्मृति बनी रहेगी... और उसके बाद? मैं यहीं आकर रुक जाता हूँ. पॉल वायला के जीवन की तरह मैं कब तक स्मृतियों के दस्तावेज़ों में अपना नाम सुरक्षित रख पाऊंगा. मेरे इस नाम से कब तक कोई सर्द आह उठेगी या नर्म नाजुक बदन अपने आगोश में समेटने को बेक़रार होता रहेगा. मैं सोचता हूँ कि कभी उससे कह दूंगा कि मेरा जीवन एक सुलगती हुई, धुंए से भरी लकड़ी है. जिसके दूसरे सिरे पर एक आदिम प्यास बैठी है. वक़्त का बढ़ई अपनी रुखानी से चोट पर चोट करता जाता है.

यह भी सोचता हूँ कि क्या कोई मुझे इसलिए प्यार करता है कि मैं शब्दों को सलीके से रखने के हुनर का ख्वाहिशमंद हूँ. मैं जैसा हूँ वैसा नहीं चलूँगा? मेरा लिखा हुआ दीर्घजीवी हो पायेगा और लोग इससे प्रेम करेंगे. इसे अपने मन का पाएंगे, यह एक धुंधली आशा मात्र है. मैं सिर्फ़ इस उम्मीद में नहीं जीना चाहता हूँ. दुनिया में लिखने का कारोबार बहुत निर्दयी है. यह विनिवेशकों का अखाड़ा है और इसकी रिंग रबर से नहीं बनी है. यह अगर रेशम का बना कालीन है तो भी मुझे इससे मुहब्बत नहीं है. मेरे भीतर के लोकप्रश्न ही मुझे प्रसन्न रख पाते हैं कि "सखिया कबन वन चुएला गुलाब, त चुनरिया रंगाइब हे"

ऐसे प्रश्नों की मादक गंध मेरे भीतर उतरती है. उस समय लगता है कि किसी ने मेरे कंधे पर अपना सर रख दिया है. चीज़ों से दूर होना ऐसे सवालों के करीब लाता है. इस विरक्ति से किसी तरह मुमुक्ष होने का भी आग्रह नहीं है. मेरे अंतस पर वैभव और यश की कामनाएं ठहर नहीं पाती. इसका लेप किस रसायन से बना है, मैं ख़ुद समझ नहीं पाया हूँ. मैं समय की नदी के किनारे आत्मक्षय का ग्राहक मात्र हूँ. इसके निर्विघ्न बहने का साक्षी... जिस तरह मेरा आना अनिश्चित और अनियत है, उसी तरह चले भी जाना चाहता हूँ. इसीलिए पूछता हूँ कि हे सखी वनों में कब खिलेंगे गुलाब और मैं अपनी चुनर को रंग सकूँगा.

मैंने अपने आपको लिखने के बारे में सिर्फ़ इतना ही कहा है कि इस रेगिस्तान की मिट्टी पर नंगे पाँव चल कर बड़े हुए हो तो इसके सुख दुःख जरुर लिखना. यह कहानी कब बनेगी मालूम नहीं है कि मैं एक बेहद आवारा और इस समाज के नैतिक पैमाने से मिस फिट इंसान हूँ. इसलिए भटकता रहता हूँ. यह कुदरत मेरे भीतर बाहर को एकरंग कर दे, यही मेरा निर्वाण है. तुम चख लो मेरी सांसों को यही इस जीवन का आरोहण है. इस पल मैं तुम्हारे बारे में सोचता हूँ, यह सबसे बड़ा सत्य है.

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उफ़क़ का कोई रंग नहीं है, यह भी उतना ही सत्य है जितना कि एक दिन मैं नहीं रहूँगा...
लेकिन उससे पहले आज औचक अपने पास पाता हूँ, मुस्कुराता हुआ चेहरा, एक नन्ही लड़की थामे हुए है चाय का प्याला, अंगीठी मैं सुलग रही है आक पर आई मौसमों की उतरन, तो लगता है कि याद एक कारगर शब्द है.

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