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उस बज़्म में हम...

अगर धूप तल्ख़ न हो जाये तो बहुत देर लेट सकता हूँ, आसमान को तकता हुआ. सुन सकता हूँ, रौशनी के अँधेरे में डूबी उलटी लटकी रोशनदानों जैसी असंख्य खिड़कियों से आती आवाज़ें. इधर नीचे आँगन में कोई ज़र्द पत्ता विदा होने के पलों में जाने क्या कहता फिरता है कि टूट जाती है, मेरे ख़यालों की सीढ़ी...  मगर मैं फिर से लौट जाता हूँ ऊंची मेहराबों में टंगी अदृश्य खिड़कियों की ओर. याद आती है एक बेवजह की बात...

नेहरू बाज़ार की लम्बी दुकान में
चित्रकार फ्रेडरिक की पेंटिंग के क्लोन को देखते हुए
एक ज़िद्दी लट आ बैठती थी उसके कॉलर पर
और ईर्ष्यालु टेबल पंखा घूम-घूम कर उसे उड़ा देता हर बार
मैं अपने हाथ को रख लेता वापस जेब में.

सरावगी मैंशन में एक कोने वाली छोटी सी दुकान में

बची हुई थी किसी दोशीज़ा की खुशबू
गोया कोई नमाज़ी गुज़रा था इश्क़िया गजानन की गली से
और देखा मैंने कि तुम उलझी खड़ी हो जींसों के रंग में.

बाद अरसे के सलेटी जींस के घुटनों पर खिल आये सफ़ेद फूल,

सॉफ्ट टॉयज और तस्वीरों में कैद चेहरों से उड़ गया रंग
याद के आलिंगनों में आता रहा
पचास पैसे में एक ग्लास पानी बेचने वाला दुबला लड़का
सिनेमा का मैटिनी शो, अपरिचित बिस्तर और ख़ामोश उदासियां.

घर के बैकयार्ड में सीमेंट के फर्श पर लेटा हुआ सोचता हूँ

कि ज़िन्दगी का मैटिनी शो क्या हुआ?
अब ये डूबी डूबी आवाज़ें क्या हैं, ये धुंधला धुंधला दिखता क्या है?
* * *
[Image courtesy : Prateeksha Pandey]

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