तुम भी देखना उचक कर...


ये क्या हुआ है मुझको कि कागज ख़राब किये जाता हूँ. इससे तो पहले बेहतर था कि चुप रहते थे. कब से बैठा हूँ कि छंट जाये अल्लाह मियां की भेजी हुई गर्द मगर वह फिर मसरूफ़ हो गया लगता है किसी की याद में, जैसे मैं खोया रहता हूँ... ये एक बेवजह की बात पढो. तस्वीर घर से दिखते पहाड़ों पर बुझे बुझे सूरज की है.

गर्द से भरा है आसमान
और साँस लेने में है तकलीफ़ कुछ ऐसे
कि किसी कमसिन लड़की का
पहली दफा छूटा है, महबूब के हाथ से हाथ.

सूरज आ चुका है सर पर कब का, अँधेरा मगर कायम है
लोग जा चुके हैं मुझसे दूर... बहुत दूर
मैं जुटा रहा हूँ सामान, आख़िरी सफ़र को
और पाता हूँ कि एक तेरी आवाज़ गायब है, मेरी झोली से.

ओ महबूब, ज़रा तुम भी देखना उचक कर, अपने घर की बाम से
कि गर्द से भरा है आसमान या साँस लेने में तकलीफ़ की वजह कुछ और है...

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