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Showing posts from May, 2012

कौन गुज़रा था अभी..

रात के बेहूदा ख्वाबों से बच कर सुबह आँख खुलने के बाद जी कहीं लगता ही नहीं. देखता हूँ कि ड्राफ्ट में बहुत सारे शब्दों का जमावड़ा हो गया है. कुछ भी तरतीब से नहीं, सब कुछ बेकार. हर बार यही सोच कर उठ जाता हूँ कि इसे डिस्कार्ड कर दिया जाये. कई बार हम खुद से कनेक्ट नहीं हो पाते हैं. अपना ही लिखा हुआ बेमानी लगता है. आखिर खुद को याद दिलाता हूँ कि ये मेरी अपनी ही डायरी है. इसमें दर्ज़ किया जा सकता है बेकार की बातों को भी...  हम कितनी ही बार कर देते हैं खुद की हत्या और वह आत्महत्या नहीं कहलाती. * * * हम देखते हैं बालकनी में आकर कि कौन गुज़रा था अभी गली से. गली, जो सूनी है, बरसों से. * * * एक बच्चा सलेट पर लिखे हुए को मिटा कर  फिर से शुरू करता है लिखना. लोग आते जाते रहते हैं,चलती रहती है जिंदगी. * * * खबर थी मुझको कि इस दौर में प्रचलित चीज़ है, धोखा मगर यह पक्की खबर न निकली. कि नायकों ने चुन लिया था कुछ अजनबी औरतों को ख़ुद के लिए और वे कभी साबित न हो सकी अजनबी. * * * दुनिया भर के भरम चुनते हुए हमें लौट आना चाहिए हमारे खुद के पास. * * *

दुखों पर ही अपना घर...

नीम के घने पेड़ों की छाँव थी. तीन मंज़िला होस्टल के तीन गलियारे थे. एक रास्ता था जो अख़बार के दफ़्तर जाता था, दूसरा रास्ता सेंट्रल लायब्रेरी. अख़बार के दफ़्तर जाते हुए एक दिन अच्छा लिख सकने की हसरत टांग कर साथ ले जाता और लेंग्वेजेज वाले डिपार्टमेंट की तरफ यानि घूम कर लायब्रेरी जाने वाले रास्ते में मुहब्बत हो जाने की उम्मीद साथ चलती थी. हमउम्र लड़कों से लड़कियां मुहब्बत नहीं करती कि उनके पास इंतज़ार करने के लिए वक़्त नहीं होता. इसलिए मेरे सारे फेरे नाकाम रहे. एक और जगह थी. जहाँ कुछ कामरेड मिला करते थे. मैं भी वहाँ होता था मगर एक ख़राब कामरेड की तरह. उतना ही ख़राब जितना कि हल का मुड़ा हुआ फाल, जितना कि अच्छी कविता में आया एक विजातीय शब्द. समय का बादल बरसता रहता है मुसलसल, लोग बिछड़ते जाते हैं, फिर भी दिल में बसे रहते हैं सायकिलों पर चलते हुए लड़के. चलते चलते एक दिन हम जाने कहाँ पहुँच जाते हैं कि ज़िन्दगी कितनी अकल्पनीय होती है. मनोज के दफ़्तर के बाहर लोग कहते हैं कि एसीपी साहब हम गरीब लोगों के आदमी है. मुझे सुनते हुए हर बार ख़ुशी होती...

सितमगर कभी तेरा यूं देखना

कल की शाम बड़ी उदास आई. दिन भर के काम के बाद घर जाने की मोहलत न हुई. एक अरसे से प्ले बैक स्टूडियो में कूलिंग न थी और रात वहीं गुज़ारनी थी. आवाज़ का काम करो तो पंखे को बंद करना होता. ये भी तय था कि आज की शाम कोई प्याला कोई आइस क्यूब नहीं होना है. कुछ चीज़ें बहुत उकसाती है. जैसे तेज लाल मिर्च वाली तरी, बड़ी इलायची वाली खुशबू, अदरक के भुने हुए टुकड़े... मगर एक मग कॉफ़ी चाहिए शाम पांच बजे. सात बजे अचानक से ठंडी हवा बहने लगती है. शीशे के पार से तकनिकी महकमे वाला एक कारिन्दा छत की ओर इशारा करता है. मैं ईश्वर की तरफ देखने के अंदाज़ में देखता और समझता हूँ कि कूलिंग सिस्टम ने काम करना शुरू कर दिया है. अचानक मालूम होता है कि एक घंटे का ब्रेक लिया जा सकता है. सब कुछ बदल जाता है. मैं बिना यकीन के फ़िल्म संगीत की प्ले लिस्ट चुनने लगता हूँ. प्रेम पुजारी, फूलों के रंग से... रात बेहिसाब हसीन हो जाती है. ख़यालों के स्क्रीन पर चमकता रहता है एक चेहरा, चेहरा ज़िन्दगी का... जो कुछ पाने की तमन्ना है वह इसी खूबसूरत दुनिया से आई है, ख़ुदा के फरिश्तों ने उस दुनिया का जो नक्शा बताया है. वह बड़ा बोरियत से भर...

तपते दिन में गीली जगह

लाचार आदमी की भाषा के पास प्रेम की आग को बयाँ करने के लिए शब्द नहीं थे. उसने जाड़ों में जलावन से उठती आंच के जरिये कहनी चाही बात मगर प्रेमिका को लगा कि ये बहुत नीरस है. उसने चूम ली हथेलियाँ और फिर पगथली के बीच रख दिए अपने होंठ मगर इस छुअन के बाद प्रेमिका ने पूछा कि मैं प्रेम के करीब आ रही हूँ या तुम्हारे और लाचार आदमी की भाषा के पास फिर से नहीं थे शब्द... एक और बेवजह की बात. मैं भी अपने तजुर्बे से होने लगता हूँ चुप, पीते हुए कि चुप्पी की भी कतरने हुआ करती है उनको बचाए रखना चाहिए मुहब्बत होने के दिनों में कि उस वक़्त बड़ी काम आती है जब तुम पूछोगे 'क्या' और मैं कहूँगा 'कुछ नहीं' फिर वे कतरने तन जाएगी हमारी मुहब्बत के ऊपर छतरी की तरह. मेरे कुछ दोस्तों को इस तरह पीने की आदत है जैसे मैं आवाज़ देता हूँ तेरे नाम को वे अक्सर लुढ़क जाते हैं गलीचों पर और रात भर ज़हीन लोगों के कदमों के निशानों को देते रहते हैं बोसे सुबह फिर नहा धोकर पहुँच जाते हैं ऑफ़िस, कल की तरह जैसे ठुकराया हुआ महबूब फिर से चुन रहा हो, नए गुलाब. * * * [Image : Road to Guda Malani.]

ख़यालों की छाया का नाच

तुम्हें मालूम हो शायद कि प्रेम रेगिस्तान का दीवड़ी भर पानी है. इसके लिए पीछे लौटना मना है कि आप खो देते हैं सफ़र का साहस. जो तपती रेत पर चलते रहते हैं. वे एक दिन सीख जाते हैं. आंसुओं के बादलों के बीच अनेक दर्द से एक इन्द्रधनुष बुनना. इस ज़िंदगी के काँटों के बीच से छनते हुए नूर की छाप हर सुबह जब धरती पर गिरती है उस वक्त छलनी हुआ दिल याद आता है. कि सब लोगों के हिस्से में जो रखा है वह उसी सवाल के जवाब का इंतज़ार है. जिसे महबूब ने अनदेखा कर रखा है. उसने जाने किसलिए नज़रें फेर रखी है कि उसे मालूम ही नहीं इंतज़ार एक उम्र भर का काम होता है. इंतज़ार उम्र के बंधन से परे है. ख़यालों की छाया का नाच यानि एक बेवजह की बात... मेरी ये फ़िज़ूल की बात एक दिन लिखी होगी किसी किताब में कि हर बार बिछड़ते वक़्त सुबह होने से पहले की घड़ी में शैतान दोनों हाथों को विशाल परों की तरह हिलाता है और बहने लगती है जादुई हवा कि वह लौट रहा होता है, महबूबा से मिल कर. वह बचाए रखता है दुनिया का भरम कि हर लड़की अच्छी है और उसे हक़ है कि कर सके किसी से भी मुहब्बत. * * * [ Painting ...

वह दिन कभी नहीं आएगा

मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं है कि ये सब क्या और क्यों लिखता हूँ. इन बेसलीका बेवजह बातों का हासिल क्या है. बस इतना सा मालूम है कि ऐसा लिखने का ख़याल किस वक़्त आता है. जब साँस लेने में होती है तकलीफ़, जब धुंधला हो जाता है ज़िन्दगी का केनवास, जब आती है तुम्हारे खो जाने की याद, जब लगता है कि सब गलत है, सब सही है... साहस की जरुरत न थी खो दिया अपना होश उस जगह फिर ना रही कोई जरुरत. नौजवान ने उतार दिए लोहे के बख्तर नदी में फैंक दिए अपने सारे हुक्म जिस जगह लड़की ने कहा था ऐसा क्यों लगता है कि तुम चले गए तो कुछ न बचेगा, मेरे पास. * * * लगता है कि कोई आवाज़ दे मुझे भी कि रुक क्यों गए पापी अभी तुम्हारा काम बाकी है * * * भ्रम का सिक्का घूमता ही जाता है कि आदमी कोल्हू के बैल की तरह देख लेना चाहता है दर्द के सिक्के के दूसरी तरफ वाली ख़ुशी * * * लोग कहते थे कि ईमान पर चल न सोच उस कुफ़्र के बारे में देख मरने के बाद भी कुछ तो साथ चलता है मैंने मगर बाख़ुशी खोल दिया उसका आखिरी बटन. * * * [Image courtesy : Kavita S.]

कभी सोचो इस तरह

एक नेक सलाह ख़ुद के लिए लिखी है, भले ही कुछ भी बदलता नहीं है. अक्षर अक्षर मांडना, साँस साँस सोचना कि कितना सफ़र बाकी है. फिर उम्मीद भी कि दिमाग एक दिन भूल जायेगा सब वस्ल और फ़िराक की बातें. फ़िलहाल सब कविता-कहानी नाकाम, सब मुश्किल, सब हैरान और सब परीशां... कभी सोचो इस तरह कि ऐसी भी क्या बात टूटी है तुम पर हर कोई उठाता है दुःख मगर फिर भी हर कोई करता है प्रेम कि हर किसी को मुश्किल है ज़िन्दगी. खुश हो जाया करो, आंसू बहाने के बाद कि तुमने देखा है किसी दीवार को मौसमों के सितम पर बहाते हुए आंसू. कि हज़ार मुश्किलों के बाद भी कुछ चीज़ें रो नहीं पाती हैं उम्र भर. ***

एक दिन सब कुछ हो जाता है बरबाद

ये तस्वीर एक डूबती हुई शाम की है. ऐसी शाम जो याद के संदूक की चाबी हो. आपको रेत पर बिखेर दे. पूछे कि मुसाफ़िर कहाँ पहुंचे हो, क्या इसी रास्ते जाना था और कितना अभी बाकी है. क्या कोई एक ख़्वाब भी था या फिर यूं ही गुज़र गयी है. मगर ये न पूछे कि उसका जवाब क्यों नहीं आया और तुम कब तक करोगे इंतज़ार ?  अगर पुकारूँ तुम्हारा नाम तो थम जायेगा सब कुछ हवा, पत्ते, रेत और चिड़ियों का शोर मगर यह नहीं होगा, एक जानलेवा तवील सन्नाटा. यह होगा कहानी के बीच का अंतराल, तस्वीर में पहाड़ और सूरज के बीच की दूरी, कहे गये आखिरी दो शब्दों के बीच का खालीपन ख़ामोशी की धुरी के दो छोर पर मिलन और बिछोह. तुम्हें आवाज़ देने से बेहतर लगता है कि हो सकूँ काले मुंह वाली भेड़ और चर लूं बेचैनी के बूंठे हो सकूँ रेगिस्तान और इंतज़ार को रंग दूं, गहरा ताम्बई. फिर कभी सोचता हूँ कि हो जाऊं दिल की कचहरी के बाहर आवाज़ देने वाला चपरासी  और फिर सिर्फ इसलिए रहने देता हूँ कि ख़ामोशी की ज़मीन पर खड़े हुए हैं, याद के हज़ार दरख़्त. उनकी बेजोड़ गहरी छाया, तुम्हारी बाँहों जैसी है वे सोख लेते हैं, आवाज़ों का शोर जैसे...