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Showing posts from July, 2012

देखा तो पाया कि शाम है

रिस रहा हो खून दिल से, लब मगर हँसते रहें, कर गया बरबाद मुझको ये हुनर कहना उसे... सुबह से फ़रहत शहज़ाद साहब की ग़ज़ल सुन रहा हूँ. आवाज़ उस्ताद मेहदी हसन की है. वे मेहदी साहब जिनको सुनते हुए एफ एम 100.7 पर संजीदा ग़ज़लें प्ले करते हुए बाईस से पच्चीस साल की उम्र के दिन काटे थे. तुम हो क्या कहीं ? फूलदान में खिल रहा है किसलिए, नूर तेरी बात का. * * * सोचो, ये कैसी है, चुप्पी अजगर के आलिंगन सी. * * * तोड़ दो, अब कसम कि बारिशें बहुत दूर हैं, अभी. * * * कभी रहो साये की तरह दरख़्त कम है, धूप ज्यादा. * * * देखो बाहर, रात है सुहानी और जाने बचे हैं, कितने दिन. * * * और कभी जो रो पड़ो तो याद करना  कुछ भी दूर नहीं है कहीं भी, वह या तो है या है ही नहीं. 

मिटा तो न दोगे ?

वो लड़का किराये पर जीप चलाता था. टेक्सी स्टेंड के आगे से गुज़रती हुई स्कूल की लड़कियों को देखा करता. उस लड़के को गाँव से पांच किलोमीटर दूर ढाणी में रहने वाली एक लड़की देखा करती थी. एक दिन स्कूल ख़त्म हो गयी, इंतज़ार बढ़ गया. ज़िन्दगी है तो साबुन तेल भी चाहिए. लड़की बस में बैठ कर बायतु गाँव आया करती. उस दिन जीप किराये पर नहीं जाती थी. बबूल के पेड़ों की कच्ची पक्की छाँव में स्टेंड पर ही खड़ी रहती. खरीदारी का वक़्त हाथ की कुल्फी की तरह होता था, लड़की उसे बचाए रखना चाहती थी मगर वह पिघलता जाता. लड़की की ढाणी के पास रेल रूकती नहीं थी वरना लड़की रेलगाड़ी की खिड़की में बैठी रहती और लड़का जीप चलाता हुआ साथ साथ पांच किलोमीटर तक जा सकता था. लेकिन बकरियां थी न, बकरियां रेत के धोरों पर खड़े दरख्तों की पत्तियां चरती. लड़की हर शाम उनको घर लाती. लड़का वहीं मिलता. धोरे की घाटी में हरी भरी नदी जैसी सूखी रेत पर रात तनहा उतरती. लड़का बायतु चला जाता, लड़की अपनी ढाणी. बायतु गाँव के बाहरी छोर पर बना हुआ एक कमरे का घर. दरवाज़े पर थपकियों की आवाज़. ऐसा लगता था कि बाहर दो तीन लोग हैं. बिना जाली वाली खिड़की से कूद कर...

जबकि न था, कभी कोई वादा

संकरी गलियों और खुले खुले खलिहानों, नीम अँधेरा बुने चुप बैठे खंडहरों, पुराने मंदिर को जाती निर्जन सीढियों के किनारे या ऐसे ही किसी अपरिचित वन के मुहाने के थोड़ा सा भीतर, वक़्त का एक तनहा टुकड़ा चाहिए. मैं लिखना चाहता हूँ कि मेरे भीतर एक 'वाइल्ड विश' मचलती रहती है. उतनी ही वाइल्ड, जितना कि नेचुरल होना. जैसे पेड़ के तने को चूम लेना. उसकी किसी मजबूत शाख पर लेटे हुए ये फील करना कि सबसे हसीन जगह की खोज मुकम्मल हुई. मैं कई बार इन अहसासों के जंजाल से बाहर निकल जाने का भी सोचता हूँ. फिर कभी कभी ये कल्पना करता हूँ कि काश अतीत में लौट सकूँ. हो सकूँ वो आदमी, जो मिलता है ज़िन्दगी में पहली बार... ऐसा भी नहीं है कि न समझा जा सके, मुहब्बत को. वह भर देता है, मुझे हैरत से यह कह कर कि तुम बता कर जाते तो अच्छा था. जबकि न था, कभी कोई वादा इंतज़ार का. * * * कोई कैसे जाने, रास्ता तुम तक आने का वक़्त के घोंसले में खो गयी उम्मीदों भरी, वन चिरैया की अलभ्य आँख. * * *

रीत रहा है, फूटा प्याला

आँख मूंदे हुए बुद्ध की मूरतों की तस्वीरें, किसी यात्री की भुजाओं पर गुदे हुए नीले टेटू, बालकनी में पड़े हुए खाली केन्स, सड़क पर उड़ता हुआ कागज से बना चाय का कप, आंधी के साथ बह कर आई रेत पर बनी हुई लहरें... जाने कितनी चीज़ें, कितने दृश्य पल भर देखने के बाद दिल और दिमाग में ठहरे हुए.  मुकम्मल होने के इंतज़ार में पड़े हुए कहानियों के ड्राफ्ट्स. बेपरवाह ढलता हुआ दिन, शाम और विस्की, रात और सुबह के सिरहाने रखे हुए कुछ सपने... * * * एक चार गुणा चार आकार के सेल में नन्हा सा खरगोश. उसे पकड़ लेने के लिए मैं दरवाज़ा रोके हुए. वह बाहर की ओर आया तो किसी डरे हुए आदमी की तरह उसे पांव से अन्दर धकेल दिया. खरगोश से भी किसी कटखने ज़हरीले जंगली जानवर जैसा डर. वह पैर के धक्के से कोने में चला गया. फिर से आया तो उसे दोनों हाथों में उठा लिया. उसने दोनों दांत मेरी तर्जनी अंगुली पर लगा दिए. दर्द होना चाहिए था मगर था नहीं.  खरगोश ने मेरे नीले रंग के शर्ट से ख़ुद को पौंछा और ख़ुद पूरा नीला हो गया. इलेक्ट्रिक ब्लू.  एक गुलाबी रंग से घिरी हुई नन्ही लड़की ने मेरे हाथ से खरगोश...