रिस रहा हो खून दिल से, लब मगर हँसते रहें, कर गया बरबाद मुझको ये हुनर कहना उसे... सुबह से फ़रहत शहज़ाद साहब की ग़ज़ल सुन रहा हूँ. आवाज़ उस्ताद मेहदी हसन की है. वे मेहदी साहब जिनको सुनते हुए एफ एम 100.7 पर संजीदा ग़ज़लें प्ले करते हुए बाईस से पच्चीस साल की उम्र के दिन काटे थे. तुम हो क्या कहीं ? फूलदान में खिल रहा है किसलिए, नूर तेरी बात का. * * * सोचो, ये कैसी है, चुप्पी अजगर के आलिंगन सी. * * * तोड़ दो, अब कसम कि बारिशें बहुत दूर हैं, अभी. * * * कभी रहो साये की तरह दरख़्त कम है, धूप ज्यादा. * * * देखो बाहर, रात है सुहानी और जाने बचे हैं, कितने दिन. * * * और कभी जो रो पड़ो तो याद करना कुछ भी दूर नहीं है कहीं भी, वह या तो है या है ही नहीं.
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]