वो लड़का किराये पर जीप चलाता था. टेक्सी स्टेंड के आगे से गुज़रती हुई स्कूल की लड़कियों को देखा करता. उस लड़के को गाँव से पांच किलोमीटर दूर ढाणी में रहने वाली एक लड़की देखा करती थी. एक दिन स्कूल ख़त्म हो गयी, इंतज़ार बढ़ गया.
ज़िन्दगी है तो साबुन तेल भी चाहिए. लड़की बस में बैठ कर बायतु गाँव आया करती. उस दिन जीप किराये पर नहीं जाती थी. बबूल के पेड़ों की कच्ची पक्की छाँव में स्टेंड पर ही खड़ी रहती. खरीदारी का वक़्त हाथ की कुल्फी की तरह होता था, लड़की उसे बचाए रखना चाहती थी मगर वह पिघलता जाता. लड़की की ढाणी के पास रेल रूकती नहीं थी वरना लड़की रेलगाड़ी की खिड़की में बैठी रहती और लड़का जीप चलाता हुआ साथ साथ पांच किलोमीटर तक जा सकता था.
लेकिन बकरियां थी न, बकरियां रेत के धोरों पर खड़े दरख्तों की पत्तियां चरती. लड़की हर शाम उनको घर लाती. लड़का वहीं मिलता. धोरे की घाटी में हरी भरी नदी जैसी सूखी रेत पर रात तनहा उतरती. लड़का बायतु चला जाता, लड़की अपनी ढाणी.
बायतु गाँव के बाहरी छोर पर बना हुआ एक कमरे का घर. दरवाज़े पर थपकियों की आवाज़. ऐसा लगता था कि बाहर दो तीन लोग हैं. बिना जाली वाली खिड़की से कूद कर लड़की बाहर निकल आई. अँधेरी रात. दो बजे का वक़्त. सूना रेगिस्तान. साँपों का स्वर्ग. लकड़बग्घों की पुकार. बबूल के ज़हरीले काँटों से भरे रास्ते.
लड़की भागती रही. हवा से तेज, अँधेरे में बिल्ली की तरह.
पांच किलोमीटर भाग कर घर की बाखल के आगे साँस रोक कर कुछ पल खड़ी रही. फाटक को बिना आवाज़ किये खोल कर अन्दर आई. चारपाई से उठा कर राली को आँगन में बिछा कर लेटी हुई तारे देखने लगी.
दो गाड़ियों की रौशनी ढाणी की ओर बढती आई. पदचाप और खुसुर फुसुर की आवाज़ें. तीन चार आदमी घर के बाहर खड़े हुए. पिताजी आँगन में आकर देखते हैं. लड़की पूछती है, कुण है बाबा ? वे कहते हैं, सो जा. लेकिन लड़की पीछे पीछे बाहर तक आ गयी.
उस लड़के को लोगों ने पकड़ कर बिठाया हुआ था. एक आदमी ने कहा. मैंने ख़ुद देखा था, आपकी बेटी इसके कमरे में थी.
माऊ रा ठोकणों ... आ के हवाई जाज में उड़न आई है ? ऐसा कहते हुए, पिताजी ने पास खड़े आदमी के एक थप्पड़ रसीद कर दी.
रात के तीन बज गए थे.
कुछ महीने बाद लड़की बाड़मेर के बाज़ार से खरीदारी कर रही थी. लड़का भी वहीं कहीं था. लड़की ने उसको एक नज़र से देखना जारी रखा. बाड़मेर का बाज़ार गायब हो गया. लोग सम्मोहन की निंद्रा में खो गए. अचम्भा सर झुका कर कहीं छुप गया. क़यामत जैसा कुछ होने से ठीक पहले लड़की बोल पड़ी. "डरना मत..."
लड़की ने एक गहरे यकीन से लड़के की ओर आँखों से ऐसा इशारा किया कि ये दुनिया और दुनिया वाले ख़ाक है. लड़का सोच रहा था कि वह वहाँ है या नहीं.
* * *
अरुण डबराल सर को ये सच्ची कहानी मैंने साल दो हज़ार तीन में सुनाई थी. इसे लिखा न जा सका कि मैं कोई काम सलीके से नहीं कर सकता हूँ. कभी कभी हफ्ते महीने विस्की को भी भूल जाता हूँ. पापा कहते थे, किशोर साहब के काम बहुत होते हैं मगर पूरे कोई नहीं हो पाते. मैंने सोचा कि कविता जैसी चीज़ से क्यों आपका दिन बरबाद करूँ इसलिए ये ही सुना दूं.
अगर वे दोनों कभी स्टूडियों आयेंगे तो मैं उनको डबराल सर की पसंद का अदालत फिल्म से ये गीत सुनाऊंगा.
ज़िन्दगी है तो साबुन तेल भी चाहिए. लड़की बस में बैठ कर बायतु गाँव आया करती. उस दिन जीप किराये पर नहीं जाती थी. बबूल के पेड़ों की कच्ची पक्की छाँव में स्टेंड पर ही खड़ी रहती. खरीदारी का वक़्त हाथ की कुल्फी की तरह होता था, लड़की उसे बचाए रखना चाहती थी मगर वह पिघलता जाता. लड़की की ढाणी के पास रेल रूकती नहीं थी वरना लड़की रेलगाड़ी की खिड़की में बैठी रहती और लड़का जीप चलाता हुआ साथ साथ पांच किलोमीटर तक जा सकता था.
लेकिन बकरियां थी न, बकरियां रेत के धोरों पर खड़े दरख्तों की पत्तियां चरती. लड़की हर शाम उनको घर लाती. लड़का वहीं मिलता. धोरे की घाटी में हरी भरी नदी जैसी सूखी रेत पर रात तनहा उतरती. लड़का बायतु चला जाता, लड़की अपनी ढाणी.
बायतु गाँव के बाहरी छोर पर बना हुआ एक कमरे का घर. दरवाज़े पर थपकियों की आवाज़. ऐसा लगता था कि बाहर दो तीन लोग हैं. बिना जाली वाली खिड़की से कूद कर लड़की बाहर निकल आई. अँधेरी रात. दो बजे का वक़्त. सूना रेगिस्तान. साँपों का स्वर्ग. लकड़बग्घों की पुकार. बबूल के ज़हरीले काँटों से भरे रास्ते.
लड़की भागती रही. हवा से तेज, अँधेरे में बिल्ली की तरह.
पांच किलोमीटर भाग कर घर की बाखल के आगे साँस रोक कर कुछ पल खड़ी रही. फाटक को बिना आवाज़ किये खोल कर अन्दर आई. चारपाई से उठा कर राली को आँगन में बिछा कर लेटी हुई तारे देखने लगी.
दो गाड़ियों की रौशनी ढाणी की ओर बढती आई. पदचाप और खुसुर फुसुर की आवाज़ें. तीन चार आदमी घर के बाहर खड़े हुए. पिताजी आँगन में आकर देखते हैं. लड़की पूछती है, कुण है बाबा ? वे कहते हैं, सो जा. लेकिन लड़की पीछे पीछे बाहर तक आ गयी.
उस लड़के को लोगों ने पकड़ कर बिठाया हुआ था. एक आदमी ने कहा. मैंने ख़ुद देखा था, आपकी बेटी इसके कमरे में थी.
माऊ रा ठोकणों ... आ के हवाई जाज में उड़न आई है ? ऐसा कहते हुए, पिताजी ने पास खड़े आदमी के एक थप्पड़ रसीद कर दी.
रात के तीन बज गए थे.
कुछ महीने बाद लड़की बाड़मेर के बाज़ार से खरीदारी कर रही थी. लड़का भी वहीं कहीं था. लड़की ने उसको एक नज़र से देखना जारी रखा. बाड़मेर का बाज़ार गायब हो गया. लोग सम्मोहन की निंद्रा में खो गए. अचम्भा सर झुका कर कहीं छुप गया. क़यामत जैसा कुछ होने से ठीक पहले लड़की बोल पड़ी. "डरना मत..."
लड़की ने एक गहरे यकीन से लड़के की ओर आँखों से ऐसा इशारा किया कि ये दुनिया और दुनिया वाले ख़ाक है. लड़का सोच रहा था कि वह वहाँ है या नहीं.
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अरुण डबराल सर को ये सच्ची कहानी मैंने साल दो हज़ार तीन में सुनाई थी. इसे लिखा न जा सका कि मैं कोई काम सलीके से नहीं कर सकता हूँ. कभी कभी हफ्ते महीने विस्की को भी भूल जाता हूँ. पापा कहते थे, किशोर साहब के काम बहुत होते हैं मगर पूरे कोई नहीं हो पाते. मैंने सोचा कि कविता जैसी चीज़ से क्यों आपका दिन बरबाद करूँ इसलिए ये ही सुना दूं.
अगर वे दोनों कभी स्टूडियों आयेंगे तो मैं उनको डबराल सर की पसंद का अदालत फिल्म से ये गीत सुनाऊंगा.