जब पागलपन, मोड़ लेती किसी जवाँ नदी की तरह उफान लेता हो तो इसे हर जुबां में कुछ तो कहा जाता ही होगा. असल में मगर देखो तो धूल उड़ती ही जाये और कच्चे रास्ते से गुज़रते रेवड़ की तरह बेचैनी की पूँछ न दिखाई दे. बिना किसी दुःख के ज़िंदगी बोझ सी हो जाये. न ठहरे न गुज़रे. ज़रा हलके उठे-उठे क़दमों के लिए कोई हलकी शराब, ज़रा खुशी के लिए किसी की नरम नाज़ुक अंगुलियां और गहरे सुख के लिए बिना किसी रिश्ते वाले माशूक के साथ कोई गुनाह, कोई दिलकशी, कोई सुकून...
पागलपन में मुझे कल दोपहर से रंगीन पत्थर सूझ रहे हैं. मैं बेहिसाब रंगीन पत्थरों से भर गया हूँ. मेरी कलाइयों में बंधे, मेरे गले में झूलते पत्थर... पत्थर मौसम का पता देते हैं. सर्द दिनों में ठन्डे गर्म दिनों में तपिश भरे. जैसे किसी नाज़ुक बदन की पसीने से भीगी पीठ, नीम बुझे शोलों जैसे होठ. पागलपन असल में तेज़ रफ़्तार तलाश है. खुद में खुद को खोजो कि किसी और में खुद को खोजो.
पागलपन की नदी में दीवानों की नाव, सुख से तैरती...
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ख़ानाबदोशों के घर उनके लोकगीतों में बसे होते हैं। उनके सफ़र की सुराही अनुभव के तरल से भरी होती है। ठहरा हुआ पानी पीने से पहले वे चखकर इंतज़ार करते हैं। प्रेम में पड़ो तो ख़ानाबदोश भी होना।
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अप्रतिम होती है हर मृत्यु सब बुहार ले जाती है। कोई मकसद उसे बना सकता है अविस्मरणीय। जैसे मेरा जाना दुनिया को दे बहाना, तुम्हारी याद का।
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तुमसे बात करते करते छपरे के आँगन में गिर रही चाँद की रौशनी की लकीर चलकर कहीं और पहुँच गयी। बात मगर कुछ हुई नहीं।
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एक उम्मीद लिखता हूँ कि
सूखे पत्ते घने साये दार पेड़ों का पता होते हैं.
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