कोई दीवार ही होते तो कितना अच्छा होता
मौसमों के सितम सहते और चुप रहते.
इक दिन बिखर जाते, बिना किसी से कोई शिकवा किये हुए.
***
"आपके आसपास अदृश्य आवरण है. मुझे नहीं पता कि इसे कैसे कहूँ. इस औरा के भीतर आने का रास्ता नहीं मिलता. या कई बार मन चाह कर भी भीतर आने से मुकर जाता है. दूर बैठकर देखता रहता है.
मुझे आपसे बहुत कुछ कहना है. मेरी चाहना है कि आप सुनें. आप मेरे पास बैठे रहें. नहीं, मैं आपके पास रहूँ. आप कितने बंद-बंद से हैं. आपकी ओर से कभी ऐसा फील नहीं आता कि लगे आपने मेरे बारे में सोचा. आपने चाहा हो कि मैं कुछ कहूँ. आपने कभी आगे होकर कोई बात नहीं की. कई बार मैंने इंतज़ार किया. थकान हुई और फिर बंद कर दिया.
मुझे लगता है कि मिल लेना, पास बैठ लेना. बात कर लेना जैसी छोटी-छोटी बातें भी कितनी दुश्वार हैं. बाकी ज़िन्दगी का तो क्या कहूँ. कितनी थकान होती है. कभी डिप्रेशन आने लगता है और भी जाने क्या- क्या? जाने दीजिये आप नहीं समझेंगे."
एक चुप्पी आ बैठी. वह देर तक बैठी रहती इससे पहले मैंने तोड़ दिया. "ऐसा थोड़े ही होता है कि जो जैसा दिखे वैसा ही हो. कई बार हो सकता है कि जिसे आप आवाज़ देना चाहते हैं, वह आपका इंतज़ार कर रहा हो."
आसमान को देखते हुए ख़याल आया कि शायद चाँद वाली दसवीं रात होगी. हवा मद्धम थी. दो रोज़ पहले की बरसात की ख़ुशबू बाक़ी थी. या शायद कहीं आस पास कुछ बरसा होगा. हवा उस ख़ुशबू को अपने साथ ले आई होगी.
जाने क्यों इतना इंतज़ार करना रास आता है. कितनी सरल सी बात है. साफ़ कह देनी चाहिए, तुम्हारे पास होना है. बस.
क्या होगा? इस पर कभी नहीं सोचना चाहिए. कि ज़िन्दगी बहुत कुछ को बहुत जल्दी भुला देने का हुनर जानती है.
* * *
अचानक लगा
कि घिर आई है शाम.
फिर लगा कि ये तुम हो.
कभी भरे-पूरे घर में खालीपन उतरते देखा है? कि आँखें बुझती जा रही है. कि साँस भारी हो गयी है. कि थकान ने मार गिराया है, मन, देह और आत्मा को. साँस एक मरोड़ बनकर ठहर जाये. गले के बीच अटकी हुई. सीने में कोई पत्थर बढ़ता हुआ.
उस वक़्त जब लगे कि अगले पल जाने क्या होगा. अगला पल कैसे आएगा?
* * *
कोई ज़रूरी है कि सबकुछ कहूँ? इतना कहना काफ़ी होता है कि अभी आ जाओ.
* * *