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बाखळ

ढाणी की बाड़ के अंदर का कुदरती अनिर्मित खुला भाग बाखळ कहा जाता है। गांव से उठकर छोटे क़स्बों में आकर रहने पर अक्सर बाखळ पीछे छूट जाती है। एक बन्द घर जीवन हो जाता है।

ये हमारे घर की बाखळ है। इसमें जो आपको दिख रहा है, वह सब हमको रिफिल करता है। जीवन से जोड़ता है। इसके लिए हमें बहुत नहीं करना पड़ता। बहुत थोड़ा करने पर बहुत सारा मिल जाता है।


हमारे घर मे घटी है। जिसे दो पाट वाली चाकी कहा जाता है। माँ उस पर कभी मूँग, मोठ जैसी दालें, कभी अजवायन जैसे मसाले पीसती हैं। लेकिन अब एक बिजली से चलने वाली छोटी चक्की भी घर में आ गयी है। उस पर गेंहूँ और बाजरा पीसा जाता है।

जब घर पर ही पिसाई होती तो साबुत धान घर पर आता है। गेंहूँ और बाजरा से बहुत थोड़ा सा हिस्सा इन मिट्टी के कटोरों में डाल देते हैं। पक्षी इनको चुगते हैं। अपना गाना सुनाते हैं। हवाई उड़ान के करतब दिखाते हैं और आराम करने लगते हैं।

तस्वीर में एक कटोरे में आपको गिलहरी दिख रही होगी। इस कटोरे में इन दिनों पार्टी होने जैसा माल मिलता है। आभा अक्सर तरबूज, खरबूज, देशी ककड़ी और बीजों वाले फल जब भी लाती है। बीजों को सहेजती हुए कहती है- "गिलहरियां कुटर-कुटर करेगी"

गिलहरियों के दो बच्चे तो सारा दिन इसी में बैठे रहते हैं। उनकी मासूम आंखें, अभिवादन की तरह जुड़े अगले पंजे और बीज कुतरने के बीच आस-पास झांकना ऐसा है कि उनसे प्यार होने लगता है।

मैं शाम को इसी बाखळ में बैठकर दुनिया को भुलाने लगता हूँ। सुबह इसी बाखळ में बैठा हुआ इन पंछियों, गिलहरियों को देखता हुआ फिर से नए दिन को जीने का प्रसन्न मन बनाता रहता हूँ।

हम अगर किसी को कुछ देते हैं तो वह भिन्न रूप में दो चार गुणा होकर हमको वापस मिल जाता है। तिरस्कार, उपेक्षा, ईर्ष्या या प्रेम। जो भी दें वही बढ़कर लौटता है।
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