इसके आगे क्या कह सकता था

हरियल तोते लौट आये। उनकी टीव टीव की पुकार हर वृक्ष पर थी। जाळ पर लगे कच्चे पीलू तोड़ती उनकी लाल चोंच दिखाई दी। वे टीव टीव की पुकार लगाकर जाळ की शाखाओं से लटके हुए कुछ कुतरने लगे। मैं हरी पत्तियों से लदे वृक्ष में कभी-कभी दिखती लाल चोंच में खो गया।

सुघड़ चोंच तीखी थी। किसी कटर के लॉक जैसी। मेरे निचले होंठ को अपने चोंच में दबाये हुए सहन हो सकने जितना ज़ोर लगाया। चोंच खुल गयी वह मेरे गाल को छू रही थी। मैं किसी रूमानी तड़प में उसे बाहों में भींच लेता मगर मैंने अपनी जीभ होंठ के भीतर घुमाई।

क्या कोई यहां था?

कोई न था। तोते पेड़ पर फुदक रहे थे। शाम हो चुकी थी। दफ़्तर से दिन की पाली वाले लोग जा चुके थे। मैंने लोहे की बैंच पर बैठे हुए चारों ओर देखा। तन्हाई थी। उस तन्हाई को देखकर यकीन आया कि जब मुझे काट लेने का ख़याल था। उस समय मेरे चेहरे पर अगर कोई चौंक आई तो उसे किसी ने नहीं देखा।

शायद मैं चौंका भी नहीं था।

एक समय बाद रूमान पर वे बातें हावी हो जाती हैं, जिनसे सम्बन्ध खत्म हुए थे। वनलता जिस तरह पेड़ों को ढ़ककर उनसे रोशनी छीन लेती है। उसी तरह कुछ उदास बातें स्याह चादर बनकर रूमान का गला दबा देती है।

मैं ये सब क्यों सोच रहा था।

हमारे पास झील का किनारा न था। न अथाह पानी था। न हम एक साथ थे। मगर ऐसी किसी जगह पर मेरी तस्वीर देखकर उसने कहा- "तुमको धक्का देने का मन हो आया।" मैंने उससे कहा- "फिर तो ज़रूर तुम्हारा मन होता होगा कि बंधे हुए घोड़े खोल दूँ।" उसने हंसते हुए कहा- "एग्जेक्टली दिस"

मैं चुप रहा। मैं इसके आगे क्या कह सकता था। मेरी चुप्पी ही मुझे बचा सकती थी। उसने प्रश्न किया- "व्हाट हैप्पन्नड हैंडसम" इस वाक्य में हैंडसम एक ख़तरनाक शब्द था। मैं इससे बच नहीं सकता था। मैं उसके आगे सर झुकाए बैठ गया। जैसे कोई समर्पण कर दे।

इसके बाद कई बार मैं झील की पाल से फिसला। मुझे तैरना नहीं आता था। मैं अपने आपको फिसलन और पानी के रहम पर छोड़ देता। इसलिए कि जब आप तैरना नहीं जानते मगर अथाह पानी को देखने, उसके पास बैठने और छूने की चाहना रखते हैं तब आपको उसकी बाहों में मर जाने का साहस भी रखना चाहिए।

मैं ख़यालों में जब भी पानी मे फिसला, मैंने मुड़कर देखना चाहा कि क्या पीछे वो है? लेकिन उसका होना कभी न दिखा। उसके न दिखने से भय हुआ और चौंककर ख़याल से बाहर आया।

पानी से इतर किसी का होठों को काट लेने वाला ख़याल शायद दूजी बार आया था। मेरे होंठ सुर्ख हो गए होंगे। मैंने अपनी हथेली से उनको पौंछा। वे सूखे थे। उन पर लू की लकीरें खींची थी।

मैं उस लोहे की बैंच से उठा और दूर तक आया। अब मैं देख सकता था कि उस बैंच पर मैं बैठा था। जब उस बैंच को देख रहा था तभी दो तोते सर के पास से उड़े। अब बैंच पर मैं नहीं था। शायद वो जो कोई आस पास था, मुझे कहीं ले गया।

मैं जानता हूँ कि वह कभी साथ न होगा। जंगली इच्छाएं अक्सर बेलगाम होती है। उनका कोई स्थायी मन नहीं होता। 
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तस्वीर : आकाशवाणी परिसर।
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